पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६९

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। रामचरित मानस । भोर कहा तुम्ह ताहि सुनानहु। तासु बचन सुनि आतुर मावहु ॥ दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसुकाई ॥४॥ मेरा कहना तुम उसको सुनाओ और उसकी बात सुन कर जल्दो लौट माओ। दूतों ने आ कर रामचन्द्रजी से कहा, सुन कर मुस्कुराते हुए रामचन्द्रजी बोले ॥४॥ हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल-मृग खोजत- फिरहीं। रिपु बलवन्त देखि नहिँ डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं ॥५॥ हम क्षत्रिय हैं और वन में प्रदेर करते हैं, तुम्हारे समान दुष्ट मृगों को ढूँढ़ते फिरते हैं। बलवान शत्रु को देख कर डरते नहीं, एक बार काल से भी लड़ते हैं ॥५॥ जद्यपि अनुज दनुज-कुल-पालक । मुनि-पालक खल-सालक बालक । जौँ न हाइ बल घर फिरि जाहू । समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ४६॥ यद्यपि मैं मनुष्य हूँ तथापि शक्षस वंश का नाश करनेवाला है, मुनियों की पालना कर. नेपाला और खलों को दुःख देनेवाला यालक हूँ। यदि बल न हो तो घर लौट जाओ, युद्ध से मुँह फेरनेवालों में से किसी को मैं न मालगा॥ ६ ॥ रन चढ़ि करिय कपट चतुराई । रिपु पर कृपा परम कदराई । दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेज । सुनि खर-दूषन उर अति दहेज ॥ युद्ध के लिए चढ़ कर कपट-चतुरई फरना और शत्रु पर दया दिखलाना बड़ी कादरसा है। दूतों ने जा कर तुरन्त-सब कहा, सुन कर पार तथा दूषण का दृश्य अत्यन्त (क्रोध से) हरिगीतिका-कुन्द । उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाये, बिकट भट रजनीचरा । सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥ मनु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा । भये बधिर ब्याकुल जातुधान न ज्ञान तेहि अवसर रहा ॥३॥ हृदय से जल कर कहा कि पकड़ो, मीषण गक्षस योधा बाण-धनुष, भाला, बरछी, विशाल, तलवार, लोहे की गदा और भलुहा लिये हुए दौड़े। प्रभु रामचन्द्रजी ने पहले धनुष का कठिन भयङ्कर गहरा टङ्कार शब्द किया। उसे सुन कर राक्षस बहरे और विकल हो गये, उस समय किसी को होश नहीं रह गया ॥३॥ यहाँ वीर और भयानक रस यधपि परस्पर के विरोधी हैं तथापि भिन्न देश में बपित होने के कारण दूषित नहीं हैं। रामचन्द्रजी में वीर रस और राक्षसों में भयानक रस का वर्णन जल गया ||७