पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। ॥ । 1 तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७०९ दो सावधान होइ धाये, जानि सबल आराति । लागे बरपन राम पर, अल सस्त्र बहु मात्ति शन को बलवान समझ कर सचेत हो दौड़े और बहुत तरह के अस्ने शस्त्र राम- चन्द्रजी पर बरसने (चलाने) लगे। तिन्ह के आयुध तिल सम, करि काटे रघुबीर। तानि सरासन सवन लगि, पुनि छाड़े निज तीर ॥१९॥ उनके हथियारों को रघुनाथजी ने तिल के बराबर टुकड़े करके काट डाले। फिर जान पर्यन्त धनुष बीच कर अपने बाण छोड़े ॥१९॥ तासर-चन्द । तब चले बान कराल । फुकरत जनु बहु ज्याला कोयेउ समर नीराम । छले बिसिख निलित निकाल ॥१॥ तक भीषण क्षाण चले, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो फुफकारते हुए साँप जा रहे हो। श्रीरामचन्द्रजी युद्ध में झोधित हुए, उनके अत्यन्त चाजे वाण घले ॥१॥ ऊपर कहा गया कि भीषण पाण चले, बाण जड़ हैं, वे स्वसम् नहीं चल सकते। उनके चलानेवाले रामचन्द्रजी हैं । यह उपादान लक्षण है। अवलोकि खर तर तीर । मुरि चले निसिचर बीर । भये क्रुद्ध तीनिउँ भाइ । जो भागि उन त जाइ ॥२॥ अत्यन्त तीन बाणों को देख कर राक्षस वीर मुड़ भाग जले । यह देख कर कि तीनों भाई (खर,दूपण और निशिरा) क्रोधित हो बोले कि जो लड़ाई से भाग तेहि बधब हम निज पानि। फिरे सरन अन सह ठानि । आयुध अनेक प्रकार । सनमुख ते करहिं प्रहार ॥३॥ उसको हम अपने हाथ से मार डालेंगे, तब वे मन में मरना निश्चित कर लौट पड़े। अनेक प्रकार के हथियार सामने आ कर चलाने लगे ॥३॥ रिपु परम' कोपे जानि । प्रेक्षु धनुष सर सन्धानि । छाड़े बिपुल नाराच । लगे कटन बिकट पिसाच ॥ शत्रु को अत्यन्त कोधित जान कर प्रभु रामचन्द्रजी ने धनुष पर बाणों का सन्धान किया । बहुत से घाण छोड़े, उससे भीषण राक्षस कटने लगे ॥४॥ जायगा ॥२॥ 1