पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७३

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७६२ रामचरित मानस । उपाय से शत्रुधों का संहार किया, पराक्रम से नहीं । केवल मुख से राम राम. बह कर मोक्ष-पद पाते हैं अर्थात् अत्यल्प कियारम्भ से लाभ वर्णन करना द्वितीय विशेष अलंकार है। हरचित बरपाहिँ सुमन सुर, बाजहिँ गगन निसान । अस्तुति करि करि सब चले, सामित विविध बिमान ॥२०॥ देवता प्रसन्न होकर फूल बरसते हैं और प्रकाश में नगारे बजते हैं। इस तरह स्तुति भर के सब देवता अनेक प्रकार के विमान में शोभायमान होकर चले ॥२०॥ चौo-जश रघुनाथ समर रिपु जीते । सुर नर मुनि सब के भय बोते॥ तब लछिमन सीतहि लेइ आये। प्रभु पद परत हरषि उर लाये ॥१॥ जब रघुनाथी ने युद्ध में शत्रु को जीत लिया तो देवता, मनुष्य और मुनि सब का.स. जाता रहा, तव लक्ष्मणजी सीताजी को ले कर आये और प्रभु रामचन्द्रजी के पाँव पर पड़े उन्होंने प्रथम देकर हत्य से लगा लिया ॥१॥ सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता। पघटी बसि श्रीरघुनायक । करत चरित सुर-मुनि सुखदायक ॥२॥ सीताजी श्यामल कोमल अंगों को बड़े प्रेम से निहार रही हैं, उनकी आँखें तृप्त नहीं होती हैं। श्रीरघुनाथजी पञ्चवटी में निवास कर देवता और मुनियों को सुख देनेवाले चरित करते हैं ॥२॥ धुआँ देखि खर दूषन केरा। जाइ सुपनखा रावन प्रेरा बाली बचन क्रोध करि मारी । देस कोस के सुरति बिसारी ॥३॥ खर और दूषण का विनाश देख कर शूर्पणखा ने जाकर रावण को प्रेरित किया। भारी क्रोध कर के वाती-हे.रावण तू ने देश और भण्डार की सुध भुला दी! ॥३॥ करसि पान सोबसि दिन राती । सुधि नहिं तव सिर पर आराती । राजनीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहि समर्प बिनु संत-कर्मा ॥४॥ मदिरा पी.फर दिन रात सोता है, तुझ को खबर नहीं कि शत्रु तेरे सिर पर आ पहुँचा है। नीति के विना राज्य, धर्म के विना.धन और बिना भगवान को. समर्पण किये सत्कर्म uel- पिया बिनु विबेक उपजाये । स्त्रम-फल पढ़े किये अरु पायें । सङ्ग ते जती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ज्ञान पान ते लाजा ॥५॥ विना विचार उत्पन्न हुए विद्या पढ़ने, सत्कर्म करने, धन और राज्य, पाने में परिश्रम ही फल है। सह से सन्यासी, दुष्ट सताह से राजा, अभिमान, से शाम, 1 मद-पान से बजाn