पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७४

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तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७१३ बिना नीति के राज्य, बिना धर्म के धन, बिना विष्णु भगवान को अर्पण किये सत्कर्म, बिना विवेक उत्पन हुए विद्या का न्यूनता कथन 'प्रथम दिनाक्ति अलंकार' है। राज्य, धन, सत्कर्म और विद्या चार वस्तुएँ कही गई हैं। फिर कहा गया कि इनके साथ यदि ये चार गुण न हो तो विद्या का पढ़ना, सत्कर्म का करना, धन और राज्य का पाना केवल श्रम मात्र है । वयं वस्तुओं के ठीक विपरीत वर्णन में विपरीतकम 'यथासंख्य अलंकार है। प्रीति अनय बिनु लद ते गुनी । नासहिँ बेगि लीति अखि सुनी ॥६॥ नम्रता के बिना प्रीति और अहंकार से गुणी तुरन्त नष्ट होते हैं, हमने ऐसी नीति सुनी है ॥६॥ राजा धर्य है, शेष सब अवण्य हैं। झारण भिन्न भिन्न हैं। सव का एक धर्म 'नासहि' कहना 'दीपक अलंकार' है। सो०-रिपु रुज पावक पाप, प्रभु अहि गनिय न छोट करि । अस कहि बिबिध बिलाप, करि लागी रोदन करन । शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और साँप को छोटा कर के न समझना चाहिये। ऐसा शाह कर अनेक प्रकार का विलाप कर के रोने लगी। शत्रु, वर्ण्य है. रोग, अग्नि, पाप स्वामी और साँप अवार्य हैं। सब का एक ही धर्म छोटा न समझना कहना 'दीपक अलंकार' है। दो०-सा माँझ परि व्याकुल, बहु प्रकार कह रोइ । तोहि जियत दसकन्धर, मारि कि असि गति होइ ॥२१॥ सभा में व्याकुल हो गिर पड़ी और रो कर बहुत तरह से कहने लगी। हे दशानन ! तेरे जीते जी क्या मेरी ऐसी गति हो ? (मैं नकटी बूची होकर जिऊँ और अपराधी अरण्य. वन में स्वच्छन्द विहार करे) ॥२१॥ चौ०-सुनत सभासद उठे अकुंलाई । समुझाई गहि बाँह उठाई ॥ कह लङ्केस कहसि किन बाता। केइ तब माला कान निपाता ॥१॥ सुनते ही ससासर धारा कर उठे, उसकी बाँह पकड कर उठाया और समझाया। लकेश्वर ने कहा-तू बात क्यों नहीं कहती ? किसने तेरी नाक और ज्ञान का विध्वंस शिया? ॥१॥ अवध-पति-दसरथ के जाये । पुरुषसिंह बन खेलन आये ॥ समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी । रहित निसाचर करिहहिँ धरनी॥२॥ शूर्पणखा कहने लगी अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र पुरुषों में सिंह रूप वन में ( अहेर ) खेलने आये हैं। मुझे उनकी करनी समझ पड़ती है कि वे धरती को दिना राक्षसों की कर देगे ॥२॥ ६०