पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७७७

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| रामचरित मानस । सुन्दर ननंता (उस प्रतिमूर्ति में है जैसी कि जानकीजी में थी) ॥२॥ जानकीजी के श्राकार और प्रतिविस्थ में कोई अन्तर न दिखाई पड़ना 'सामान्य अलंकार' है। लछिमनहूँ यह परम न जाना । जो कछु चरित रचेउ भगवाना ॥ दसमुख गयउ जहाँ मारीचा । नाइ · मार्थ स्वास्थ रत नीचा ॥३॥ जो कुछ चरित्र भगवान ने किया, उसका भेद लक्ष्मणजी ने भी नहीं जाना । नीच रावण स्वार्थ में तत्पर मस्तक.नवाये वहाँ गया जहाँ मारीच रहता था ॥३॥ मारीच अनुचर है और रावण राजा है, इसलिये मारीव को मस्तक नहीं नवाया। स्वार्थी लोग अकर्तव्य करने में नहीं हिचकते, स्वार्थवश सिर नवाया। दोनों प्रकार का अथ किया जा सकता है। नवनि नीच के अति दुखदाई । जिमि अङ्कुस धनु उरग बिलाई ॥ अय-दायक खल के प्रिय बोनी । जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥४॥ नीचों की नम्रतो अत्यन्त दुःख देनेवाली है, जैसे अङ्कुश, धनुष, साँप और बिल्ली को नवना ! शिवजी कहते हैं-हे भवानी ! खलों की प्रिय पाणी भयदाई है, जैसे-अकाल (बिना समय का) फूल फूलना ॥m. दो०-करि पूजा मारीच तब, सादर पूछी बात । कवन हेतु मन व्यग्न अति, अकसर आयहु तात ॥२४॥. तब मारीच ने पूजा करके आदर-पूर्वक वात पूछी। हे तात ! किस कारण आप व्याकुल मन ले अकेले आये हैं ॥२४॥ चौ०-दसमुख सकल कथा तेहि आगे। कही सहित अभिमान अभागे । होहु कपट-मृग तुम्ह छलकारी । जेहि बिधि हरि आनउँ नृप नारी॥१॥ अभागे रावण ने अभिमान के साथ सारी कथा उसके सामने कही। फिर बोला. कि तुम छल करनेवाला कपट-मृग बनो, जिस प्रकार में राजा, की स्त्री को हर लाऊँ ॥१॥ तेहि पुनि कहा सुनहु दससीसा । ते चराचर-ईसा॥ ता स तात बयर नहि कीजै । मारे मरिय जिआये जीजै ॥२॥ फिर भारीच ने कहा-हे दशानन ! सुनो, वे मनुष्यदेह लिये चराचर के स्वामी हैं। हे तात ! उनसे बैर मत कीजिये, जिनके मारने से मृत्यु और जिलाने से जीना होता है ॥२॥ मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति माहि मारा ॥ सत जोजन आयउँ छन माहीं । तिन्ह सन बयर किये भल नाहीं ॥३॥ ये राजकुमार मुनि को यच रक्षा करने के लिए गये थे, वहाँ रघुनाथ नो ने बिना फर के