पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८०

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. 1 . । तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७१६ सत्यसन्ध प्रनु बध करि एही। आनहु : धर्म कहति बैदेही । तब रघुपति जानत सब कारन । उठे हरषि सुर-काज सँवारन ॥३॥ . हे सत्यसाल्प स्वामिन् ! इस का वध कर के चर्म ले आहये, जब जानकीजी ने ऐसा कहा । तव सर कारणों को जानते हुए रघुनाथजी देवतामों का कार्य सुधारने के लिए प्रसन्न हो कर उठे ॥३॥ मृगबिलोकि कटि परिकर बाँधा । करतल चाप रुचिर सर साधा ॥ प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई । फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥४॥ मृग को देख कर कमर में फेटा बाँधा और हाथों में सुन्दर धनुष-बाण सजाया । प्रभु रामचन्द्रजी ने लक्ष्मण को समझा कर कहा कि हे भाई! वन में बहुत से राक्षस फिरते हैं ॥४॥ सीता केरि करेहु रखवारी । बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥ प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाये राम सरासन साजी ॥ तुम बुद्धि, ज्ञान और बल से अक्सर समझ कर सीता की रखवाली करना । प्रभु राम- चन्द्रजी को देख कर मृग भाग चला और रामचन्द्रजो धनुष सज कर उसके पीछे दौड़े ॥५॥ निगम नेति सिन ध्यान न पावा । माया-सृग पाछे से धावा ।। कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई । कबहुँक प्रगठइ कबहुँ छिपाई ॥६॥ (जिन परमात्मा की महिमा वर्णन करने में वेद अन्त नहीं कहते और जिनको शिवजी ध्यान में नहीं पाते, वे ही माया (बनावटी) मृग के पीछे दौड़ते हैं ! वह मृग कभी समीप में आता; फिर कभी दूर भाग जाता है, कभी प्रत्यक्ष होता और कभी छिप जाता है ॥ ६ ॥ प्रगटत दुरत करत छल भूरी । एहि विधि प्रभुहि गयउ लेइ दूरी ॥ तब तकि राम कठिन सर मारा । घरनि परेउ करि घोर चिकारा ७॥ इस तरह प्रकट होते और छिपते बहुंत सा.छल करते हुए प्रभु को दूर ले गया तब राम- चन्द्रजी ने लक्ष्य कर के कठिन दाण मारा, भौषण चीत्कार कर के वह धरती पर गिर पड़ा ७ लछिमन कर प्रथमहि लेइ नामा । पाछे लुमिरेसि मन महँ रामा। प्रान तजत प्रगटेसि लिज-देहा । सुलिरेसि राम समेत सनेहा ॥८॥ (इसने ज़ोर से चिल्ला कर ) पहले लघमणजी का नाम लिया, पीछे रामचन्द्रजी को 'मन में स्सरण किया। प्राण त्यागते समय अपना शरीर प्रकट कर दिया और प्रीति के सहित रामचन्द्रजी का सुमिरन किया ॥ ॥ अन्तर-प्रेम तासु पहिचाना । मुनि-दुर्लभ गति दोन्हि सुजाना ॥६॥ सुजान रामचन्द्रजी ने उसके अन्तःकरण का प्रेम पहचान कर जोगवि मुनियों को दुर्लभ है, वह दी ॥ ॥