पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८२

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७२१ . . तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । जिसके डर से देवता दैत्य डरते हैं, उन्हें रात में निद्रा नहीं आती और दिन में भूख नहीं लगती ॥४॥ सो दससीस स्थान की नाई । उस इत चितइ जला मड़िहाई ॥ इमि कुपन्थ पग देत खगेसा । रह न तेज तन बुधि बल लेसा ॥५॥ वही रावण कुत्ते की तरह इधर उधर देखता हुआ चोरी करने को चला है । काग- भुशुण्डजी कहते हैं-हे पतिराज! इसी प्रकार कुमाग में पाँव रखते ही शरीर में तेज, बुद्धि और बल लेशमा नहीं रह जाते हैं ॥५॥ नाना विधि कहि कथा सुहाई । राजनीति मय नीति देखाई। कह सीता सुनु जती . गोसाँई । बोलेहु अचन दुष्ट की नाँई ॥६॥ अनेक प्रकार की सुन्दर कथा कह कर राजनीति, डर और प्रीति देखाया । सीताजी ने कहा-हे यती गोसाँई । सुनिये, श्राप ने तो दुष्ट के समान वचन कहे हैं ॥६॥ राजनीति-यह कि ऐसी कोमलाशीबाला को वन में अकेले छोड़ना नीति विरुद्ध है। भय-इल जङ्गल में भयकर जीवजन्तु और राक्षल निवास करते हैं। प्रीति-यदि तुम मुझ से प्रेम करो तो मैं तुम्हारी रक्षा पगा। तब रावल निज-रूप देखावा । सई समय जब नाम सुनावा । कह सीता धरि धीरज गाढ़ा । आइ गयउ मनु खल रहु ठाढ़ा ॥७॥ तय रावण ने अपना रूप दिखाया और जब नाम बतलाया तब सीताजी भयभीत हुई। उन्हों ने अच्छी तरह धीरज धर कर कहा- -अरे दुष्ट ! बड़ा रह, स्वामी आगये ॥ जिमि हरि-बथुहि छुद्र सस चाहा । भयेसि काल-बस निसिचर-माहा ॥ सुनत बचन दलसीस लजाना । मन महँ चरन बन्दि सुख माना ॥८॥ जैसे सिंह की भाा को तुच्छ लरहा चाहता हो, अरे राक्षसपति ! उसी तरह काल के अधीन हुधा है । सीताजी की बात सुन कर दशानन लज्जित हुआ और मन में उनके चरणों को नमस्कार कर के प्रसन्न हुअा ॥ दो०-क्रोधवन्त तब रावन, लीन्हेसि रथ बैठाइ । चला गगन-पथ आतुर, भय रथ हाँकि न जाइ ॥ २८ ॥ तव (प्रत्यक्ष में) रावण क्रोधित होकर रथ पर उन्हें बैठा लिया और शीघ्रतापूर्वक प्रकाश- मार्ग से चला, परन्तु डर के कारण रथ हाँका नहीं जाता है ॥२८॥ रावण का मन में खजाना, चरणों की वन्दना कर के सुख मानना, क्रोधित होना और डरना, धपुत भावों का एक साथ उदय 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। भय के आगे ऊपर कहे हुए सभी भाव शान्त हो गये, इसलिए भावशान्ति भी है।