पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८३

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. ७२२ रामचरितमानस चौ०-हा जगदेव-बीर रघुराया । केहि अपराध बिसारेहुदाया ॥ आरति-हरन सरन-सुख-दायक । हा रघुकुल-सरोज-दिननायक ॥१॥ सीताजी विलपने लगी-हाय ! जगत में एक ही वीर रघुराज, किस अपराध से दया भुला दी ! हाय ! रघुकुश रूपी कमल-वन के सूर्य ! श्राप शरणागतों के दुःख को दूर कर उन्हे सुख देनेवाले हैं ॥१॥ हा लछिमन तुम्हार नहिँ दोषा। सो फल पायउँ कोन्हउँ रोषा ॥ बिबिध बिलाप करति बैदेही । भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥२॥ हाय लक्ष्मण ! तुम्हारा दोष नहीं, जैसा मैं ने क्रोध किया, वैसा फल पाया । इस तरह जानकीजी अनेक प्रकार का विलाप करती हैं, वे कहती है कि पहुत बड़ी कृपा और स्नेह करनेवाले स्वामा दूर हो गये | ॥२॥ बिपति मारि को प्रभुहि सुनावा । पुरोडास चह रासम खावा । सीता के बिलाप सुनि भारी। मये चराचर जीव दुखारी ॥३॥ मेरी विपति कौन स्वामी को सुनावेगा? यक्ष के भाग को गदहा खाना चाहता है! सीताजी के भारी विलाप को सुन कर स्थावर जइम सब जीव दुःखी हुए ॥३॥ गोधराज सुनि आरत बानी । रघुकुल-तिलक-नारि पहिचानी । अधम निसाचर लीन्हे जाई । जिमि मलेछ-बस कपिला-गाई na गीधों के राजा जटायु ने दुःख भरी वाणी सुन कर पहचाना कि ये. रघुकुल के भूषण (रामचन्द्रजी) की स्त्री हैं। अधम राक्षस कैसे लिये जाता है जैसे कसाई के वश में कपिला गाय पड़ी हो || सीते पुन्नि करखि जनि त्रासा । करिहउँ जातुधान कर नासा । धावा क्रोधवन्त खा छूटइ पबि पर्वत कह जैसे ॥५॥ जटायु ने पुकारा हे सोते पुनि ! तू डर न कर, मैं राक्षस का नाश करूंगा। पेसा कह फर वह पक्षी क्रोधित हो कैसे दौड़ा जैसे पर्वत को ओर वा छूटता है ॥५॥ रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसिन जानेहि माही । आवत देखि कृतान्त संमाना । फिरि दसकन्धर कर अनुमाना ॥६॥ जटायु ने रावण को ललकारा-अरे दुष्ट ! रे अधम ! खड़ा क्यों नहीं होता ! निगर हो कर चला है, मुझ को नहीं जानता ? काल के समान आता दुपा देख कर रावण उसकी और फिर कर अनुमान करने लगा ॥६॥ की मैनाक कि खगपति हाई । ममं बल जान सहित पति साई ॥ जाना जरठ जटायू एहा । मम कर तीरथ छाडिहि देहा ॥॥ या तो मैनाक होगा अथवा गण्ड़ होगा, परन्तु ये दोनों मेरे बल को अपने मालिकों के ।