पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८५

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. रामचरितमानस । सीतहि जान चढाइ बहोरी ! चला उताइल त्रास न धोरी। करति बिलाप जाति नभ सीता । व्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥१२॥ फिर सीताजी को रथ पर चढ़ा कर शीघ्रता ले चला, उसके मन में बड़ी वास उत्पन हुई। सीताजी विलाप करती हुई आकाश में जाती हैं, घे पेसी मालूम होती हैं मानो व्याधा के वश में मृगी भयभीत हो ॥ १२ ॥ गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥ एहि बिधि सीतहि सो लेइ गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ ॥१३॥ पर्वत पर बैठे बन्दरों को देख भगवान का नाम लेकर अपना वस्त्र गिरा दिया। इस तरह सीताजी को वह ले गया और शोक वन में रखा ॥ १३ ॥ दो-हारि परा खल बहु बिधि, भय अरु प्रोति देखाइ । असोक-पादप तरं, राखेसि जतन कराइ॥ दुष्ट रावण बहुत तरह भय और प्रीति दिखा कर हार गया, (अव सीताजी ने उसकी बात स्वीकार नहीं की ) तव अशोक वृक्ष के नीचे रक्षक नियत फर यत्न-पूर्वक रखा। अशोक वृक्ष के नीचे रखने में लक्षणामूलक व्यङ्ग है, क्योंकि अशोक शोक को दूर कर देता है। अथवा सीताजी की तपश्चर्या में किसी प्रकार का वित न हो । अथवा अशोक के नीचे रख कर यह सूचित किया कि श्राप शोक न करें, स्वामी शीघ्र आवेगे इत्यादि । जेहि बिधि कपट-कुरङ्ग-सँग, धाइ श्रीराम । सो छबि सीता राखि उर, रटति रहति हरि-नाम ॥२९॥ जिस प्रकार कपट-भृग के साथ श्रीरामचन्द्रजी दौड़ कर चले थे। उस छवि को सीताजी हृदय में रख कर भगवान का नाम रटती रहती हैं ॥ २ ॥ चौ-रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिन्ता कीन्ह बिसेखी । जनक-स्ता परिहरेहु अकेली । आयहु तात बचन मम पेली ॥१॥ रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को आते देख कर बाहरी (दिसौत्रा) बहुत ही चिन्ता की। उन्होंने कहा-हे भाई ! मेरी वाव टाल कर जन-मन्दिनीको अकेलो छोड़ भाये ॥ १॥ निसिचर -निकर फिरहिँ बन माहीं । ममं मन सोता आलम नाहीं ॥ गहि पद-कमल अनुज कर जारी । कहेउ नाथ कछु मोहि न खारी॥२॥ मुण्ड के झुण्ड राक्षस वन में फिरते हैं, मेरा मन कहता है सौता आभम में नहीं हैं। लक्ष्मणजी ने चरण कमलों को पकड़ कर और हाथ जोड़ कर कहा-हे नाथ! इसमें मेरा कुछ भी दोष नहीं है ॥२॥ .