पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८६

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१ तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७२५ अनुज समेत गये प्रक्षु तहवाँ । गोदावरि-तट आलम जहवाँ । ओखम देखि जानकी हीना । अये बिकल जस प्राकृत दीना ॥३॥ छोटे भाई लक्ष्मणजी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी वहाँ गये जहाँ गोदावरी नदी के किनारे आश्रम था। जानकीजी से हीन बालम को देख कर ऐसे व्याकुल हुए जैसे प्राकृत (मामूली विषयी मनुष्य) दुःखी हो ॥३॥ गुनखानि जानकी सीता । रूप-खील ब्रत नेम पुनीता ॥ , लछिमन समुझाये बहुभाँती.। पूछत चले लता तरु पाँती ॥४॥ हाय ! गुणों की खानि जानकी, हाय !.रूप, शील, व्रत और नियमों से पवित्र सीता (तु कहाँ गई)। लक्षाणजी ने बहुत तरह से समझाया, तब वृक्ष और लता-पंक्तियों से पूछते हुए चले ॥ सीताजी के विरह से व्याकुल होकर जड़ चेतन के सम्बन्ध में तुल्यवृत्ति धारण कर लेना, वृक्षों से पूछना 'उन्माइ संचारी भाव है। सभा की प्रति में 'लता तरु पाती' पाठ है। वहाँ लता, वृक्ष और पत्नी सधैं होगा। हे खग मृग हे मधुकर लेनी । तुम्ह देखी सीला मृगनैनी ॥ । खजन सुक कपोत मग सोना । मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥५॥ हे पक्षियो ! हे भृगे। हे भ्रमरों की श्रेणियो ! तुमने मृग नयनी सीता को देखा है ? उनकी आँखें खञ्जरीउ-हरिण और मछली को, नासिका-कोर को, ग्रीवा-कबूतर को, बाल भ्रमर समूह को तथा कण्ठ प्रवीण कोकिल को! लज्जित करनेवाले हैं ! ॥५॥ इल पाँचवी चौपाई के उत्तरार्द्ध से नीचे की सातवीं चौपाई पर्यन्त केवल उपमान का नाम कह कर उपमेयों का गध कराना 'रुपकातिशयोक्ति अलंकार' है। कुन्द कली दाडिम दामिनी । कमल सरद खसि अहिमामिनी ॥ बरुनपास मनोजधनु हंसा. । गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥६॥ दाँत-कुन्द की कला और अनारदाने के समान, कान्ति विझली की तरह, मुख-शरत्काल के कमल एवम् चन्द्रमा, चोटी-नागिन की भाँति, कण्ठ रेखा-वरुण के फन्दे के तुल्य, भौंह. .कामदेव के धनुष के बराबर, चाल हंस और हाथी की, कमर सिंह जैसी पतली है। (जिनके बिना आज ये सब उपमान मेरे मुख से) अपनी बड़ाई सुनते हैं ॥६॥ श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं । नेकु न सङ्क सकुच मन माहीं । जानकी ताहि बिनु आजू । हरषे सकल पाई जनु राजू ॥७॥ पयोधर-बेल के समान, शरीर का रक-सुवर्ण और जडा-कदली, सभी उपमान उपमेय के बिना मन में प्रसन हैं, इनको जरा भी शक नहीं है। हे जानकी ! सुनो, आज तुम्हारे पिता ये सम्पूर्ण ( उपमान ) ऐसे प्रसन्न मालूम होते हैं मानो इन्हें राज्य मिल गया हो ॥७॥ i