पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

! ७२६ रामचरितमानस । किमि सहि जात अनख ताहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगसि कस नाहीं॥ एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी । मनमहा बिरही अति कामी ॥८॥ हे प्रिये ! इस तरह रुष्ट होना तुमसे कैसे सहा जाता है जल्दी प्रकट क्यों नहीं होती हो । इस प्रकार स्वामी रामचन्द्रजी विलाप करते हुए सीताजी को ' हूँढ़ते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों बड़े बिरही और अत्यन्त कामी-पुरुप हो ॥८॥ यहाँ रामचन्द्रजी के हदयं में सीताजी विषयक रति स्थायी भाव है। जानकोजी नालस्बन विभाव है । खननादि का दर्शन उद्दीपन विभाव है। विरह व्यथा से विकल होकर प्रलाप करना अनुभाव है । वृक्ष लतादिकों से उनका पता पूछना उन्माद सञ्चारी भाव से पुष्ट होकर 'विप्रलम्भ शृङ्गाररस' हुआ है। पूरनझाम-रान सुख रासी । मनुज चरित कर अज अधिनासी ॥ आगे परा गोध-पति देखा । सुमिरत राम-चरन जिन्ह रेखा ॥६॥ रामचन्द्रजी पूर्णकाम (इच्छारहित) भार सुख के राशि हैं, वे अजन्मे एवम् अविनाशी हैं, मनुष्य चरित करते हैं । भागे गिद्धराज को पमा देखा जो रामचन्द्रजी के चरण-विह्नों को स्मरण करता था ॥8॥ दो०-कर-सरोज सिर परसेउ, कृपासिन्धु रघुबीर । निरखि राम छवि-धाम-मुख, बिगत भई सब पीर ॥३०॥ कृपासांगर रधुनाथजी ने अपने कर-कमलों को जटायु के मस्तक पर स्पर्श कर के फेरा। शोभा के स्थान रामचन्द्रजी के मुख को देख कर उसकी संघ पीड़ा जाती रही ॥३०॥ चौ तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भजन-भव-भीरा ॥ नाथ दसानन यह गति कीन्ही । तेहि खल जनक-सुता हरि लीन्ही॥१॥ तष गीध धीरज धर कर पचन बोला-हे संसारी भय को चूर चूर करनेवाले रामचन्द्र जी ! झुनिये। हे नाथ ! मेरी यह दशा रावण ने की है, उसी दुष्ट ने जनकनन्दिनी को हर लिया है। लेइ दच्छिन-दिसि गयउ गोसाँई । बिलपति अति कुररी की नाँई ॥ दरख लागि प्रेशु राखेउँ प्राला । चलन चहत अब कृपानिधाना ॥२॥ हे स्वामिन् ! उन्हें ले कर वह दक्षिण दिशा में गया है, सीताजी टिटिहरी-पक्षी. की तरह बहुत विलाप करती थी। हे कृपानिधान प्रभो! आप का दर्शन करने के लिये मैं ने अब तक प्राण रक्खे, पर 'श्रय घे चलना चाहते हैं ॥२॥ राम कहा सनु राखहु ताता । मुख मुसुकाइ कही तेहि बाता। जा कर नाम मरत मुख आवा । अधमउ मुकुत्त होइ खुति गावा ॥३॥ रामचन्द्रजी ने कहा-है तात! शरीर रखिये, जटायु ने मुख में मुस्कुरा कर बात कही।