पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७८९

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७२८ रामचरित मानस । प्रेरक (प्रदान करनेवाले) आपको जय हो । अपने प्रचण्ड वाणों से रावण की प्रखर भुजाओं के काटने वाले श्राप धरती को शोभित करते हैं। श्याम मेघ के समान शरीर, कमल-मुख और खिले हुए लाल कमल के समान भाप के नेत्र है । हे कृपालु रामवन्द्रजी ! आप आजान बार और संसार-सम्बन्धी भय को छुड़ानेवाले हैं, मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ IN बलमप्रमेयमनादिमजमन्तक्कमेकमगोचरं । गोबिन्द गो-पर दुन्द-हर विज्ञान-धन धरनी-धरं ॥ जे राममन्त्र जपन्त सन्त अनन्त जन मन रजनं । नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि-खल-दल-गञ्जनं ॥१०॥ बाप अप्रमेय बली, अनादि, अजन्मे, अप्रकट, अद्वितीय और इद्रियों को अप्राप्य हैं। श्राप इन्द्रियों के स्वामी, इन्द्रियातीत, विग्रह को हरनेवाले विज्ञान के मेघ और धरती को धारण करनेवाले हैं। जो राममन्त्र जपते हैं उन अनन्त सन्तजनों के मन को आप प्रसन्न करनेवाले हैं। हे रामचन्द्रजी श्रोप को निष्काम (कामना से रहित) जन प्यारे हैं, आप काम आदि दुष्टों के दल के नाश करते हैं, मैं आप को नित्य नमस्कार करता हूँ॥१०॥ जेहि लुति लिज्जन ब्रह्म व्यापक, बिरज अज कहि गावहीं। कषि ध्यान ज्ञान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥ सो प्रगट करुनाकन्द सामा,-चन्द अग जग माहई। अम-हृदय-पङ्कज-भूङ्ग अङ्ग अनङ्ग बहु छबि सोहई ॥११॥ श्रुतियाँ जिनको माया ले निर्लिप्त ब्रह्म, व्यापक निर्मल और अजन्मा कह कर गाती हैं। अनेक प्रकार का योग, वैराग्य और ज्ञान कर के मुनि लोग जिन्हें ध्यान में पाते हैं। वही (परमात्मा) करुणाकन्द, शोभा के पुज प्रकट होकर चराचर को मोहित कर रहे हो । भाप के अन में बहुत से कामदेव की छवि शोभित है, मेरे हदय रूपी कमल में आप सदा भ्रमर रूप से विहार करें ॥११॥ जो अगम सुगम सुभाव निर्मल, असम सम सीतल सदा । पस्यन्ति जं जोगी जतन करि, करत मन गो बस जदा ॥ सो राम रमानिवास सन्तत, दास-बस त्रिभूवन-धनी। मम उर बसहु से समन संसृति, जासु-कीरति पावनी ॥१२॥ जो दुर्गम और सुगम हैं, स्वाभार्षिक निर्मल, विषम भी तथा सम भी एवम् सदा शीतल हैं। जिनको योगी यत्न कर के देखते हैं, जिस समय वे मन और इन्द्रियों को वश में करते हैं। हे रामचन्द्रजी ! आप वही लक्ष्मीकान्त तीनों लोकों के मालिक और निरन्तर भकों के वश में रहते हैं। जिनकी पवित्र कीर्ति संसार के तापों को नष्ट करती है, वेही (परमारमा रामजन्द्रजी) आप मेरे हृदय में निवास कीजिये ॥१२॥