पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९

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समेते ॥ रामचरित-मानस । २८ ची-कपिपति रीछ निसाचर राजा । अङ्गदादि जे कीस-समाजा ॥ बन्दउँ सब के चरन सुहाये । अधम-सरीर राम जिन्ह पाये ॥१॥ बानरराज सुग्रीव, जाम्बवान, राक्षसराज विभीषण और अगद आदि जो वन्दरों का समूह है, उन सबके सुन्दर चरणों को मैं प्रणाम करता है, जिन्हों ने अधम ( पशु और राक्षस) देह से रामचन्द्रजी को पाया ॥१॥ रघुपति चरन उपासक जेते । खग मृग सुर असुर घन्दउँ पद-सरोज सघ केरे। जे बिनु काम राम के चेरे ॥२॥ पती, मृग, देवता, मनुष्य और दैत्यों सहित जितने रघुनाथजी के चरणों की आराधना करनेवाले हैं, जो निष्काम रामचन्द्रजी के दास हैं, उन सब के चरण कमलों को मैं प्रणाम करता हूँ ॥२॥ सुक सनकादि भगत मुनि नारद । जे मुनिवर बिज्ञान बिसारद ॥ प्रनवउँ सबहिँ धरनि धरि सीसा । करहु कृपा जन जानि मुनीसा ॥३॥ शुकदेव, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार और नारदमुनि अदि भक्त ऋषिश्रेष्ठ जो विज्ञान में प्रसिद्ध हैं। धरती पर मस्तक रख कर सभी को प्रणाम करता है। हे मुनीश्वरो! मुझे अपना दास समझ कर कृपा कीजिए ॥ ३॥ जनक-सुता जग-जननि जानकी। अतिसय प्रिय करना निधान की। ताके जुग-पद-कमल मनावउँ । जासु कृपा निरमल मति पावउँ ४॥ जनकनन्दिनी जगत् की माता जानकीजी जो करुणानिधान रामचन्द्रजी की अतिशय प्यारी हैं। उनके दोनों चरण-कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँगा ॥४॥ पुनि मन-बचन-करम रघुनायक । चरन-कमल बन्दउँ सबं लायक ॥ राजिव-नयन धरे धनु-सायक । भगत-विपति-मजन सुखदायक ॥५॥ फिर मैं मन, वचन और कर्म से सब प्रकार योग्य श्रीरघुनाथजी के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ । जिनके कमल के समान नेन है और जो हाथ में धनुष वाण लिए भको की विपत्ति नाश कर उन्हें सुख देनेवाले हैं ॥५॥ दो०-गिरा-अरथ जल-बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न । बन्दउँ सीता-राम-पद, जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥८॥ वाणी और अर्थ, पानी और लहर के समान, कहने के लिए अलग हैं, परन्तु वस्तुतः अलग नहीं (अभिन्न) है। ऐसे सीता और राम के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ जिन्हें दुर्बल ही अत्यन्त प्यारे हैं, ॥ १८ ॥ गुरका में देखियत भिन्न त मिन्न' पाठ है