पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९१

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७३० रामचरित मानस । दो०-मन क्रम बचन कपट तजि, जो कर भूसुर सेव । मोहि समेत बिरञ्चि सिव, बस ताके सब देव ॥३३॥ मन, कर्म और बधा से कपट त्याग कर जो ब्राह्मण की सेवा करता है उसके वश में मेरे सहित ब्रह्मा, शिव तथा सघ देवता रहते हैं ॥३३॥ एक ब्राह्मण की सेवा में बहुत से उत्कृष्ट गुणों की समता देना कि सम्पूर्ण देवताओं के सहित उसके वश में मैं रहता हूँ 'तृतीय तुल्ययोगिता अलंकार' है। चौ० लापत ताड़त परुष कहन्ता । विप्र पूज्य अस गावहिं सन्ता । पूजिय बिन तील गुल होना । सूद्रन गुन गन ज्ञान प्रयोना ॥१॥ शाप देनेवाला, मारनेवाला और कटु वचन कहनेवाला ब्राह्मण पूजने योग्य है, ऐसा सन्त लोग कहते हैं। अच्छी चालचलन और गुण से हीन ब्राह्मण को पूजना चाहिये, किन्तु समूह गुणों से युक्त एवम् ज्ञान में निपुण शुद्र को न पूजना चाहिए ॥६॥ कहि निज धर्म ताहि समुझावा । निज पद प्रोति देखि मन भावा ॥ रघुपति चरन कमल सिरनाई। गयउ गगन आपनि गति पाई ॥२॥ इस प्रकार अपना धर्म फह कर उसको समझाया और अपने में उसकी प्रोति देख कर मन में प्रसव हुए। रघुनाथजी के चरण-कमलों में मस्तक नवा कर अपनी गति (गन्धर्व शरीर) को पाफर श्राकाश को चला गया ॥२॥ ताहि देई गति राम उदारा । सबरो के आस्त्रम पग धारा ॥ लवरी देखि राम गृह आये । हुनि के बचन समुझि जिय भाये ॥३॥ उसको गति दे कर उदार रामचन्द्रजी ने शवरी के आश्रम में पदार्पण किया। शवरी रामचन्द्रजी को घर आये देख और मुमि के वचन समझ कर मन में प्रसन्न हुई ॥an 'उदार' शब्द में लक्षणामूलक गूढ़ व्या है कि राक्षल, गिद्ध, कवन्ध को गति देकर अव शबरी के आश्रम में बसे मुक्ति देने आये हैं। मतल ऋषि का यहां निवास था, ने लकड़ी, पत्तल आदि लाकर बहुत काल तक मुनियों की सेवा की। जब मवंग ऋषि परमधाम जाने लगे तब शवरी से कहा कि-इसी स्थान में रह कर भगवान् रामचन्द्रजी का मार्ग देखना। वे स्वयम् तेरी कुटी में आ कर दर्शन देंगे और तुझे मोक्ष प्रदान करेंगे । तब ले वह दस हजार वर्ष तक राह देखती रही। आज रामचन्द्रजी के दर्शन से मुनि की बात याद पाई। सरसिज लोचन बाहु विसाला । जटा मुकुट सिर उर बनमाला । स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई । सबरी परी चरन : लपटाई ॥४॥ कमल के समान नेत्र, विशाल भुजाय, सिर पर जटा का मुकुट और हृदय में धनमाल शोभित है। दोनों भाई सुन्दर श्यामल गौर हैं, देखते ही शवी चरणों पर गिर कर शवरी लिपट गई |