पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९४

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. तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । प्रेममगन मुख बचन ने आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा । सादर जल लेइ चरन पखारे । पुनि सुन्दर आसन बैठारे ॥५॥ प्रम में मन हो गई, उसके मुख से वचन नहीं निकलता है, बार बार वरण कमलों में सिर नवाती है। चादर के साथ जल ले. कर पाँच धोये, फिर सुन्दर श्रासन पर बैठाया॥५॥ दो-कन्द मूल फल सुरस अति, दिये राम कह आनि । प्रेम सहित प्रमुखाये, बारम्बार बखानि ॥३॥ उसने अत्यन्त स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल ला कर रामचन्द्रजी को दिये । प्रभु राम- चन्द्रजी ने उन्हें बार बोर बखान कर प्रेम के सहित खाये ॥३४॥ कुछ प्रेमा भक कह बैठते हैं कि रामचन्द्रजी ने शवरी के जूठे फल खाये। पर ऐसा कहना परम भक शवरी की पवित्र भक्ति को फलक्षित करना और माा पुरुषोत्तम रोमचन्द्रजी की निर्मल कीर्ति पर धम्वा लगाना है। क्या शवरी भगवान को जूठा फल अर्पण कर सकती थी १ (कदापि नहीं)।हा-यह हो सकता है कि जिन जिन वृक्षों के फल खाया हो, उनमे जो उसे स्वादिष्ठ जान पड़े, उन्हों के फलों का सञ्चय किया हो। पर जूठे फल फा अर्पण करना सर्वथा अयुक्त है। वाल्मीकीय और अध्यात्म रामायण में भी कन्द मूल फल देना लिखा है किन्तु जूठे फल देने का उल्लेख नहीं है। चौ०-पानि जोरि आगे भइ ठाढो । प्रनुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी केहि बिधि अस्तुति करउँ तुम्हारी । अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥१॥ हाथ जोड़ कर सामने खड़ी हुई, प्रभु को देख कर उसके मन में अत्यन्त प्रीति पढ़ी। बोली-मैं आप की किस प्रकार स्तुति का, एक वो अधम जाति को दूसरे भारी मूर्ख-बुद्धि

अधम तें अधम अधम अतिनारी । तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी ॥ कह रघुपति सुनु भामिनि बातो । मान एक भगति कर नाता ॥२॥ 'हे पाप के शव ! मीच से नीव अत्यन्त नीच स्त्री हैं, उनमें मैं नीच बुद्धिवाली हूँ। रघु- नाथजी ने कहा है भामिनि ! मेरी बात सुन, मैं एक भक्ति का नाता मानता हूँ ॥२॥ शवरी का रसरोत्तर अपना अपकर्ष कथन करना सार अलंकार है। जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई । धन बल परिजन गुन चतुराई । भगति हीन नर साहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिय जैसा ॥३॥ जाति, पाति; कुल-धर्म का बड़प्पन, धन-वले, कुटुम्ब-बल, गुण और चातुर्य्यता सब हो। परन्तु भक्ति हीन मनुष्य कैसे सोहना है जैसे बिना पानी के बादल शोमा रहित दिखाई देता है॥३॥