पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९५

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७३२ रामचरित मानस । नवधा भगति कहउँ ताहि पाही । सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥ प्रथम भगति सन्तन्ह कर सगा। दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा ॥४॥ मैं तुझ से नौ प्रकार की भक्ति कहता हूँ, सावधान होकर सुन और मन में रख । मेरी प्रथम भक्ति सन्तों का सा है और दूसरी मेरे कथा-प्रसङ्ग में प्रीति है ॥ ४॥ दो०-गुरु-पद-पङ्कज सेवा, तीसरि भगति अमान । चाथि भगति सम-गुन-गन, करइ कपट तजि गान ॥३५॥ तीसरी भक्ति अभिमान रहित हो कर गुरु के चरण-शामलों की सेवा करना और चौथी भक्ति कपट छोड़ कर मेरे गुण-गणों को गान करना है ॥ ३५ ॥ चौo-मन्त्र-जाप सम दृढ़ निस्वासा । पञ्चम भजन सो बेद प्रकासा ॥ छठ दम-सोल चिरति बहु कर्मा । निरत निरन्तर सज्जन-धर्मा ॥१॥ मेरा मन्त्र ( राम-नाम ) जपने में दृढ़ विश्वास रखना, यह पाँचौं भजन (भक्ति) वेद में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति इन्द्रिय-दमनशील, कर्म-समूह का त्याग और सदा सज्जनों के धर्म तत्पर रहता है।१॥ सातव सम माहि मय 'जग देखा। मा तें सन्त अधिक करि लेखा । आठौँ जथा लाम सन्तोषा । सपनेहुँ नहिं देवइ पर दोषा ॥२॥ . सातवी भक्ति समान दृष्टि से सुझ से व्याप्त जगत को देखना और मुझ से अधिक सन्तों को समझना है । आठवी भक्ति-जो लाम हो उसी में सन्तुष्ट रहना और सपने में भी पराये दोष को न देखना है ॥२॥ नवम सरल सब सन छल होना । मम भरोस हिय हरष न दीना नव महँ एकउ जिन्ह के होई । नारि पुरुष सचराचर कोई ॥३॥ नवी भक्ति सब से निष्कपट और सीधा रहना है, हर्ष या दीनता मन में न ला कर मेरा भरोसा रखे । नयों भक्ति में जिनके एक भी हो, स्त्री-पुरुष और जड़ चेतन में चाहे सोइ अतिसय प्रिय माणिनि सारे । सकल प्रकार अगति जोगि-बन्द दुर्लभ-गति जोई। तो कह आजु सुलभ भइ साई ॥2॥ हे भामिनी ! वही मुझे अतिशय प्यारा है, तुझ में तो सम्पूर्ण (नवों) प्रकार की अटल भक्ति है । जो गति योगियों को दुर्लभ है, आज वही तुझे सुलभ हुई है ॥४॥ मल दरसन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ जनकसुता के सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबर-गामिनी ॥५॥ मेरे दर्शन का अतिशय अनुपम फल है कि जीव अपने स्वाभाविक रूप (मोक्ष) को पाता है । हे भामिनी ! गज गामिनी ! जनकनन्दिनी की खबर जानती हो, वह कहो ॥ ५॥ . कोई हो ॥३॥ तोरे। .