पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९६

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'तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७३३ चौपाई के पूर्वार्द्ध में वाच्यसिद्धार गुणीभूत व्यङ्ग है कि मेरे दर्शन से जीव मोक्ष पाता है, तुझे भी मोक्षपद प्राप्त होगा। पम्पासरहि जाहु रघुराई। तह रघुराई। तहँ होइहि सुग्नीव मिताई ॥ सो सब काहिहि देव रघुबीरा। जानता भतिधीरा ॥६॥ शवरी ने कहा-हे रघुराज! पम्पासर को जाइये, वहाँ सुग्रीव से मित्रता होगी। हे मतिधीर रघुवीर देव ! वह सब कहेगा, सब जानते हुए भी आप मुझ से पूछते हैं ! ॥६॥ बार बार प्रभु पद सिर नाई । प्रेम सहित सब्ब कथा सुनाई ॥७॥ घारम्बार प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवा कर प्रेम के साथ सब कथा कह सुमायी (जो रामायण की कथा पूर्व में मत ऋषि से सुना था)॥७॥ हरिगीतिका-छन्द । कहि कथा सकल बिलोकि हरि-मुख, हृदय पद-पङ्कज घरे । तजि जोग-पानक देह हरि पद, लीन भइ जहँ नहि फिरे । नर बिबिध-कर्म अधर्म बहु-मत,सेक-प्रद सब त्यागहू । बिस्वास करि कह दासतुलसी, राम-पद अनुरागहू ॥ १३ ॥ सम्पूर्ण कथा कह कर और रामचन्द्रजी के मुख को देख उनके चरण कमलों को हृदय में धारण किया । योग की अग्नि में शरीर त्याग कर भगवान के चरणों में लीन हुई और वहाँ पहुंची जहाँ से जीव लौटते नहीं अर्थात् सायुज्य मोक्ष को प्राप्त हुई । तुलसीदासजी कहते हैं-हे मनुष्यो ! नाना प्रकार के कम,अधर्म और सब शोकदायक बहुमतों को त्याग दो। विश्वास कर के रोमचन्द्रजी के चरणों में प्रेम करो ॥१३॥ दो०-जाति-हीन अघ-जनम-महि, मुकुत कीन्ह असि नारि । महा-मन्द-मन सुख चहसि, ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥३६॥ जाति से रहित (कुजाति) और पाप की जन्मभूमि (जहाँ पापों का जन्म होता है) ऐसी स्त्री को जिन्होंने (संसार के बन्धन से) मुक्त कर दिया ! अरे मन ! ऐसे स्वामी को भुला कर सुख चाहता है? तू महा नीच है ॥६॥ उपदेश अपने मन को देते हैं, पर उद्देश्य इसका संसार भर के स्त्री-पुरुषों के लिए हैं जिसमें वे सुन कर समझे और रामानुरागी बने। यह 'गूढोक्ति अलंकार' है। चौ०-चले राम त्यागा बन सोऊ । अतुलित बल नर' केहरि दोऊ ॥ बिरही इव प्रभु करत विषादा । कहत कथा अनेक सम्बादो ॥१॥ उस वन को भी त्याग कर रामचन्द्रजी चले, दोनों भाई अतुल बलवान और मनुष्यों में सिंह हैं। प्रभु रामचन्द्रजी वियोगी नरों के समान विषाद करते हैं तथा अनेक भाँति (विरह को) कथा का समाचार कहते हैं ॥१॥