पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९८

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दृतीय सोपान, अरण्यकाण्डे । ७३५ रामचन्द्रजी के वृदय में सीताजी-विषयक रति स्थायीभाव है । सीताजी बालम्बन विभाव हैं और शुरु, कपोत, खक्षन भ्रमरादिकों का दर्शन उहीपन विमात्र है । विरह व्यथा से व्याकुल होना अनुभाव है। सीताजी की सुन्दरता का स्मरण, वृक्षादिकों को काम दल मानना उन्माद सञ्चारी भाव से पुष्ट होकर भूतप्रवास विप्रलम्भ शाररस हुआ है। 'वगमेल' शब्द की प्याख्या बालकण्ड में ३०५ दोहे के नीचे की टिप्पणी देखिये। देखि गयउ आता सहित, तासु दूत सुनि बात । डेरा कीन्हेउ मनहूँ तब, कटक हटाकि मनजात ॥३७॥ जब उसका दूत मुझे भाई के सहित देख गया कि मैं अकेला नहीं हूँ. तब यह बात सुन कर ऐसा मालूम होता है मोनों कामदेव ने सेना को (चढ़ाई करने से मना कर पड़ाव डाल दिया हो ॥३७॥ कामदेव घेरा नहीं डाले है. केवल मन की कल्पनामात्र 'अनुक्तविषया वस्तूमेक्षा श्रलंकार है। चौ०-बिटप-बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिये जनु तानी। कदालि ताल घर ध्वजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका ॥१॥ बड़े बड़े पक्षों पर लताएँ लपटी हुई ऐसी मालुम होती हैं मानों अनेक प्रकार के तम्बू तान दिये हों। केले और ताल के पेड़ सुन्दर ध्वजा; पताका है, इन्हें देख कर जिनका मन मोहित हो वह धीरजवान है ॥१॥ बिबिध भाँति फूले तरु नाना । जनु बानत बने बहु बाना । कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाये । जनु भट बिलग बिलग होइ छाये ॥२॥ तरह तरह के वृक्ष नाना प्रकार से फूले हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो बहुत वेषवाले नामी योद्धा सजे हो। कहीं कहीं (अफेले) सुन्दर वृक्ष शोभित हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं माने अलग अलग हो कर वीर टिके हो ॥२॥ कूजत पिक मानहुँ गज माते । ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥ मार-कार-कीर बर बाजी। पारावत सब ताजी ॥३॥ कोकिल बोलते हैं वे ऐसे मालूम होते हैं मानो मतवाले हाथी हो, सारस पक्षी, ऊँट और महोख खधर हैं। मुरैला, चकोर और सुग्गा श्रेष्ठ घोड़े हैं, कबूतर तथा राजहंस सब ताजी घोड़े हैं ॥३॥ तीतर लावक पदचर जूथा । बरनि न जाइ मनोज बरूथा । रथ गिरि सिला दुन्दुभी झरना । चातक बन्दी गुन-गन · बरना ॥४॥ तीतर और बटेर पैदलों के झुण्ड हैं, कामदेव की सेना का वर्णन नहीं किया जा सकता। पर्वतो की चट्टाने रथ है, झरने नगारे हैं और पपीहा बन्दीजन हैं जो उसके गुणगण घजानते हैं ॥४॥