पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९९

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रामचरित मानस । मधुकर-मुखर भेरि सहनाई । त्रिविध बयारि बसीठी आई। चतुरङ्गिनी सेन सँग लीन्हे । बिचरत मनहुँ चुनौती दीन्हे ॥५॥ भ्रमरों का बोलना नगारा और सहनाई है, तीनों प्रकार (शीतल, मन्द, सुगन्धित) की हवा दूत का आगमन है । इस तरह साथ में चतुरहिनी सेना लिये हुए विचरता है, ऐसा मालूम होता है मानों लड़ाई के लिये उचेजना देता है ॥५॥ लछिमन देखत काम अनीका । रहहिँ धीर तिन्ह कै जग लीका । एहि के एक परम-बल नारी । तेहि तैं उबर सुभट सोइ भारी ॥६॥ हे लक्ष्मण ! कामदेव की सेना को देख कर जिनके मन में धीरज बना रहे, उनकी संसार में गणना होती है अर्थात् पे धन्य कहे जाते हैं । इसका एक बड़ा बल स्त्री है, उससे जो वर्च जाय वही भारी योद्धा है ॥६॥ दो०-तात तीनि अति प्रबल खल, काम क्रोध अरु लाम। मुनि बिज्ञाल-धाम मन, करहिं निमिष महँ छोम ॥ हे भाई ! काम, क्रोध और लोभ ये तीनों अत्यन्त प्रबल दुष्ट हैं । विज्ञान के स्थान मुनियों के मन में क्षणमात्र में खलवली कर देते हैं । लोभ के इच्छो दम्भ बल, काम के केवल नारि । क्रोध के परुष-बचन बल, बुनिबर कहहिँ बिचारि ॥३८॥ लोभ का बल इच्छा और अहंकार है, काम का बल केवल स्त्री है। क्रोध का बल कठोर वचन है, मुनिवर विचार कर ऐसा कहते हैं ॥३॥ चौ०-गुनोत्तीत संचराचर-स्वामी । राम उमा सब. अन्तरजामी ॥ कालिन्ह के दीनता देखाई। धीरन्ह के मन बिरति दृढ़ाई ॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा रामचन्द्रजी गुणों से परे, जड़-चेतन के स्वामी और सबके भीतर की वात जाननेवाले हैं (उनके लिए विरह कैसा?)उन्होंने कामी पुरुष को व्याकुलता दिखायी और धारवानों के मन में वैराग्य दृढ़ किया ॥१॥ पहले शिवजी ने रामचन्द्रजी की वियोग-दशा का वर्णन किया, फिर गुणातीत सर्वान्त. ामी कह कर उसका निषेध करते हैं । यह 'उक्ताक्षेप अलंकार है। क्रोध मनोज लान मद माया । छूटहिँ सकल राम की दाया ॥ सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला । जा पर हाइ सो नट अनुकूला ॥२॥ क्रोध, काम, लोभ, अहंकार और मायो ये सम्पूर्ण रामचन्द्रजी की दया से छूटते हैं। वह मनुष्य इन्द्रजाल में नहीं भूलता, जिस पर वह (इन्द्रजाल करनेवाला) मदारी प्रसन्न रहता है ॥२॥