बोला-हरिप्रेरित लछिमन मन डोला पाठ गुटका और सभा की प्रति में है प्रथम संस्करण में हमने इसी को प्रधानता.दी थी। किन्तु कतिपय रामायण के शाता विद्वानों ने उसको अशुद्ध ठहराया और बदल देने का अनुरोध किया तदनुसार पं० रामबकस पांडेय की प्रति का पाठ-"मरम बचन जब सीता बोली-हरिप्रेरित लछिमन मति डोली" प्रधान स्थल में इस बार रक्खा गया है। जिन समाः लोचकों ने पाठ तोड़ने मरोड़ने का मुझ पर दोषारोप किया है, यह उनका अन्याय हैं। मूलपाठ के बदलने का हमें कोई भधिकार नहीं, और न कहीं जान बूझ कर हमने वैसा किया है। भ्रम अथवा छापे के दोष से पाठ में कदाचित कहीं अन्तर पड़ गया है। तो यह दूसरी बात है
हमारी इच्छा थी कि रामायण के प्रथम संस्करण की प्रतियों का सर्वसाधारण के सुवीतार्थ स्वल्प मूल्य निर्धारित किया जाय; किन्तु काग़ज़ आदि की महंगाई के कारण विवश हो प्रकाशक महोदय पाठ रुपये से कम उसका मूल्य नहीं रख सके, फिर भी दो वर्ष के भीतर ही एक सहन प्रतियाँ समाप्त हो गयीं । शीघ्रता के साथ इस खपत को देख विश्वास हो रहा है कि रामायण के प्रेमियों को यह टीका पसन्द आई और उन्होंने इसे अपनाया। इसके सिवा. कितने ही प्रसिद्ध पत्रों के सुयोग्य सम्पादकों और विद्वानों ने टीका की उपयोगिता के विषय में अनूकूल सम्मति प्रदान कर उस विश्वास को और भी रद कर दिया है। पहले हमें इस बात का कुछ भी भरोसा नहीं था कि विद्वग्मण्डली में इस टीका को इतना बड़ा सम्मान प्राप्त होगा। परन्तु केहि न सुसङ्ग बड़ापन पावा' के अनुसार अब मैं अपने परिश्रम को सफल समझ रहा हूँ।
रामचरितमानस की टीका हमने पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिये नहीं किया और न इसी अभि- प्रायले लिखने का प्रयास किया है कि हमारी टीका पूर्व के टीकाकारों से बढ़ कर होगी। वास्तविक बात तो यह है कि रामचरितमानस पर चिरकाल से हमारे हृदय में प्रगाढ़ अनुराग है और उसका कहना, सुनना मनन करना अथवा टीका लिखना एक प्रकार रामभजन कहा जाता है। यही सोच कर हमने इस कार्य को सम्पन्न करने का साहस किया और इस बात की तनिक भी परवाह नहीं की कि भाषा पर मेरा कोई अधिकार है अथवा नहीं । जब रामायण के विषय में अपना अपना विचार ज्यक करने का स्वत्व पढ़े अनपढ़े छोटे बड़े सभी लोगों को है, तब उससे अकेला मैं ही क्यों वञ्चित रक्खा जा सकता हूँ। जो भकिवान प्रोणी रामयश गान करते हैं वे पार पाने के अभिप्राय से नहीं वरन् उसे एक प्रकार ईश्वर का भजन समझ कर वर्णन करते हैं । दूषित दृष्टि वाले मनुष्यों को दोष ही से शान्ति मिलती है अतएव वे अपनी प्रकृति के अनुसार उसके लिये प्रयत्नशील होकर सन्तोष प्रहण करते हैं। उन्हें स्वच्छ मानसरोवर में भी दादुर सम्बुकादि के बिना यथार्थ भानन्द नहीं प्राता, अस्तु।
अपनी टीका में हमने इस प्रकार का क्रम रक्खा है कि मूल पद्यों ( चौपाई, दोहा, छन्द, श्लोकादि ) के अन्त में उनके अंक के नीचे भावार्थ लिख, उस पर मूल छन्दों का अंक देकर वह पंक्ति छोड़ दी गयी है । अर्थ के नीचे कथानकों की टिप्पणी, शङ्कालमाधान, रस, भाव, ध्वनि, अलंकार की समास अथवा व्यास अप.से व्याख्या की गयी है। प्रथम संस्करण की अपेक्षा इस बार गोस्वामाजी की जीवनी में विस्तार किया गया है। कुछ त्रुटियों का भी सुधार किया गया है। अन्त में एक मानस- पिङ्गज' लगाया है उसमें मानस के समस्त छन्दों के लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं। पाठकों के
मनोरनार्थ पूर्व की अपेक्षा इस बार कई एक रंगीन और सादे चित्र लगाये गये हैं और जिल्ल आदि