पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७३ रामचरित मानस । ताल समीप मुनिन्ह गृह छाये । चहुँ दिसि कानन बिटप सुहाये ॥ चम्पक बकुल कदरून तमाला । पाटल पनस परास रसाला ॥३॥ ताल के समीप में मुनियों की कुटियाँ छाई है, उनके चारों ओर वन के वृक्ष शोमायमान हो रहे हैं । चम्पा, मौलसिरी, कम्प, तमाल, गुलाब, कटहर, पलास और आम ॥३॥ नव पल्लव कुसुमित तरु नाना । चचरीक-पटली कर गाना । सीतल मन्द सुगन्ध. सुभाऊ । सन्तत बहइ मनोहर बाऊ ngn नवीन पत्ती और फूलों से लदे नाना प्रकार के वृक्ष सुहा रहे हैं, उनमें झुण्ड के झुण्ड भ्रमर गुजारते हैं । शीतल, मन्द और सुगन्धित स्वाभाविक मनाहर वायु सदा बहती है ॥४॥ कुहू कुहू कोकिल धुनि करही । सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥५॥ कोयल कुहू कुहू की धनि करती हैं, उनकी रसीली बोली सुन कर मुमियों के ज्यान छूट जाते हैं ॥५॥ दो-फल मारन्ह नमि बिटप सब, रहे भूमि नियराइ ॥ पर-उपकारी-पुरुष जिमि, नवहिं सुसम्पति पाई nan फलों के बोझ से सब वृक्ष नय कर धरती के समीप नियरा रहे हैं । वे ऐसे लटक रहे हैं जैसे परोपकारी पुरुष अच्छी सम्पत्ति पा कर नवते हैं ॥४०॥ यहाँ पर गोस्वामीजी ने प्रकृति सौन्दर्य कितना मनोहर वर्णन किया है चौ०-देखि राम अति रुधिर तलावा । मज्जन कीन्ह परम सुख पावा ॥ देखी सुन्दर तरु बरे छायो । बैठे अनुज सहित रघुराया ॥९॥ रामचन्द्रजी ने अत्यन्त शोभन तालाब देख कर स्नान किया और बहुत सुखा को प्राप्त हुए। सुन्दर वृक्ष की अच्छी छाया में छोटे भाई लक्ष्मणजी के सहित रघुनाथजी बैठ गये ॥१॥ तहँ पुनि सकल देव मुनि आये । अस्तुति करि निज धाम सिधाये ॥ , बैठे परम प्रसन रूपाला । कहत अनुज सन कथा रसाला ॥२॥ फिर वहाँ सम्पूर्ण देवना और मुनि आये, वे स्तुति कर के अपने अपने स्थान को चले गये । कृपालु रामचन्द्रजी अतिशय प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई से रसीली कथा कहते हैं ॥२॥ बिरहवन्त अगवन्तहि देखी । नारद मन 'भा सोच बिसेखी॥ भार साप करि अङ्गोकारा । सहत राम नाना दुख भारा ॥३॥ भगवान् को विरही देख कर नारदजी के मन में बड़ा सोच ।हुआ। उन्होंने विचारा कि मेरा शाप अङ्गीकार कर के रामचन्द्रजी नाना तरह के दुःखों का बोझ सहते हैं ॥३॥