पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०३

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ugo रामचरिल-मानस। छिपाव करवा हूँ। (कदापि नहीं)। हे मुनिवर ! कौन ऐसी वस्तु मुझे प्रिय लगनेवाली है जो आप माँग नहीं सकते ? ॥२॥ जन कहँ कछु अदेय नहिं मारे । अस बिस्वास तजहु जनि भारे। तब नारद बोले हरषाई । अस बर माँगउँ करउँ ढिठाई ॥३॥ भक्तों के लिये मेरे पास कुछ भी न देने योग्य वस्तु नहीं है, ऐसा विश्वास भूल कर भी • मत छोड़िये । तब नारदजी प्रसन्न हो कर बोले, मैं ढिठाई करके यह पर माँगता हूँ ॥३॥ जद्यपि प्र के नाम अनेका । स्तुति कह अधिक एक ते एका ॥ राम सकल नामन्ह ते अधिका । होउ नाथ अघ-खग-गन-बधिका॥ यद्यपि प्रभु (आप) के अनेक नाम हैं, वे उनको एक से एक बढ़कर कहते हैं । तो भी हे नाथ ! 'राम' नाम सस्पूर्ण नाम से बढ़कर पाप रूपी पक्षी बुन्द के लिये व्याधा रूप हो ॥४॥ दो०-राकारजनी गति तन, राम नाम लाइ साम । अपर नाम उडुगन बिमल, बसहु भगत-उर-व्योम ॥ वही राम नाम रूपी चन्द्रमा, आपकी भकि रूपिणी पूर्णिमा की रात्रि में अन्य नाम रूपी तारागणों के सहित भक्तों के हृदय रूपी निर्मल श्राकाश में निवास करे। एवमस्तु बुनि सन कहेउ, कृपासिन्धु रघुनाथ । तब नारद मन हरष अति, प्रभु-पद नायउ माथ ॥४२॥ कृपा के समुद्र रघुनाथजी ने मुनि से कहा ऐसा ही हो । तब नारदजी ने मन में अत्यन्त प्रसन्न होकर प्रभु रामचन्द्रजी के चरणों में मस्तक नवाया ॥४॥ चौ०-अति प्रसन्चरघुनाथहिजानी। पुनि नारद बोलेउ मृदु बानी ॥ राम जबहिँ प्रेरेहु निजमाया। माहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥१॥ रघुनाथजी को अत्यन्त प्रसन्न जानकर फिर नारदमी कोमल वाणी से बोले । हे रघुराज रामचन्द्रजी ! सुनिये, जब अपनी माया को आज्ञा दे कर आपने मुझे माहित किया ॥१॥ तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा । प्रभु केहि कारन करइ न दीन्हा । सुनु मुनि ताहि कहउँ सहरोसा। मजहिँ जे माहि तजि सकल भरोसा॥२॥ तब मैं विवाह करना चाहा, पर स्वामी ने किस कारण नहीं करने दिया ? रामचन्द्रजी कहा-हे मुनि !'सुनिये, मैं श्राप से प्रसन्नता के साथ कहता हूँ कि जो सारा भरोसा छोड़ कर मुझे सजते हैं ॥२॥ करउँ सदा तिन्ह के रखवारी । जिमि बालकहि राख महतारी ॥ गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई । तहँ राखइ. जननी अरु गाई ॥३॥ सदा उनकी रक्षा करता है, जैसे माता पालक की रक्षा करती है। अबोध बालक और पछड़ा भाग तथा साँप को पकड़ने के लिए दौड़ता है, वहाँ माता और गाय उसकी रक्षा करती हैं ॥३॥