पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७४२ रामचरित मानस । धर्म सकल सरसीकह टन्दा । होइ हिम तिन्हहिँ देति सुख-मन्दा ॥ पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर-रितु पाई ॥३॥ सम्पूर्ण धर्म रूपी कमल-वन के लिये स्त्री हिमऋतु होकर उन्हें निकम्मा सुन्न देती है , अर्थात् प्रत्यक्ष में शीतलता सुख प्रतीत होता है, किन्तु अन्त में उसी से कमल जल जाता है। फिर ममता रूपी यवाले की बहुतायत को स्त्री शिशिर ऋतु हो कर उसे हरा भरा कर देती है ॥ पाप उलूक निकर सुखकारी । नारि निबिड़ रजनी अँधियारी॥ बुधि बल सील सत्य सब मीना । बनसी समतिय कहहिं प्रथीना ॥१॥ पाप रूपी उल्लुओं के झुण्डको स्त्रो घोर अंधेरी रातके समान सुख देनेवाली है। बुद्धि, बल, शील और सत्य सव मछली रूप हैं, परिडत लोग कहते हैं कि उन्हें फंसाने के लिए स्रो वसी (उस काँटा को कहते हैं जिसमें शिकारी मतली फँसाकर जल के बाहर खींच लेता है) के समान है। दो-अवगुन-मूल सूल-प्रद, प्रमदा सब दुख खानि । तात कीन्ह निवारन, मुनि म यह जिय जानि ॥४४॥ स्वी सब दोषा की जड़, पीड़ा देनेवाली और दुःखों की खानि है । हे मुनि ! इसी लिप मन में यह जान कर मैने आप को उससे दूर किया neen चौ०-सुनि रघुपत्ति के बचन सुहाये । मुनि तन पुलक नयन भरि आये कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥१॥ रघुनाथजी के सुहावने वचन सुन फर मुनि का शरीर पुलकित हो गया। और आँखों में जल भर आया। नारदजी घोले-हे प्रभो ! कहिये, श्राप को यह कान सीरीति है कि सेवकों पर इतना घना समत्व और प्रेम रखते है ।। जे न मजहिँ अच प्रक्षु मम त्यागी । ज्ञान-रङ्क नर मन्द अभागी॥ पुनि सादर बोले मुनि नारद ।'सुनहु राम बिज्ञान बिसारद ॥२॥ जो ऐसे स्वामी को भ्रम छोड़ कर नहीं भजते, वे मनुष्य ज्ञान के परिद, नीच और अभागे हैं, फिर आदर-पूर्वक नारद मुनि बोले-हे विज्ञान में श्रेष्ठ रामचन्द्रजी ! मुनिये ॥२॥ सन्तन्ह के लच्छन रघुबीरा । कहहु नाथ भञ्जन अव भीरा ॥ सुनु मुनि सन्तन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह तँ मैं उन्ह के बस रहॐ ॥३॥ । हे रघुनाथजी ! संसारी भय को चूर चूर करनेवाले, महाराज ! सन्तों के लक्षण कहिये । रामचन्द्रजी बोले-हे मुनि ! सुनिये, मैं सन्तों के गुण कहता हूँ. जिन गुणों से उनके वश में रहता हूँ॥३॥