पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०६

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1 तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७३ नारदजी के पूछने पर रघुनाथजी सन्तों के लक्षण कहते हैं। इसमें गूढ़ अभिप्राय सज्जनों. को महिमा वर्णन करने का है। यह प्रश्न सहित 'शूढ़ोत्तर अलंकार' है। षट-विकार-जित अनघ अकाला। अचल अकिञ्चन सुचि सुख-धामा । अमित-बाघ अनीह मित-भोगी। सत्य सार ऋषि कोबिद जोगी ॥४॥ जो छनौ विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) को जीते हुए, निष्पाप, इच्छा रहित, अचञ्चल, धन के त्यागी, पवित्र और सुख के स्थान होते हैं । जिनका ज्ञान अनन्त, चेष्टा रहित, अल्पभोगी, सत्य के सार रूप, कवि, विद्वान और योगी होते हैं ॥४॥ सावधान मानद मद-हीना। धीर भगति-पथ परम-प्रवीना ॥५॥ अपने कर्तव्य पालन में सचेत, दूसरों को मान देनेवाले, श्राप मान से रहित, धीरवान, भक्ति मार्ग में बड़े निपुण होते हैं ॥५॥ दो०-गुनागार संसार-दुख,-रहित बिगत सन्देह । तजि अम चरन-सरोज प्रिय, जिन्ह कह देह न गेह ॥४५॥ गुणों के स्थान, संसार सम्बन्धी दुःखों से रहित और बिना सन्देह होते हैं। जिनको मेरे चरण-कमलों को छोड़ कर शरीर और घर प्यारा नहीं है ॥ ४५ ॥ चौ०-निज गुन बत्रन सुनत सकुचाहीँ। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं। सम सीतल नहि त्यागहिनीती। सरल सुनाव सबहि सन प्रीती॥१॥ अपना गुण कान से सुन कर सकुचाते हैं और दूसरे का गुण सुन कर बहुत प्रसन्न होते हैं । लमान और शान्त रह कर नीति नहीं त्यागते, सीधा स्वभाव तथा सब से प्रेम करते हैं ॥१॥ जप तप ब्रत दम सञ्जम नेमा । गुरु-गोबिन्द-बिन-पद दाया। मुदिता मम-पद-प्रीति अमाया ॥२॥ जप, तप व्रत, इन्द्रिय दमन, विषयों से संयम नियम रखने और गुरु, ईश्वर, ब्राह्मण के चरणों में प्रेम रखते हैं। श्रद्धा, (गुरु, घेद, शास्त्रों के वचनों में आस्तिक बुद्धि से विश्वास) क्षमा, मित्रता, दया, प्रसन्नता-युक्त मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम करते हैं ॥२॥ बिरति बिबेक बिनय बिज्ञाना । बोध जथारथ बेद पुराना ॥ दम्भ भान भद करहिं न काऊ । भूलि न देहिँ कुमारग पाऊ ॥३॥ वैराग्य, शान, नम्रता, विज्ञान से पूर्ण और वेद पुराणों का यथार्थ ज्ञान रखते हैं। पाखण्ड अभिमान और पागलपन कभी नहीं करते, भूल कर भी कुमार्ग में पाँव नहीं देते ॥३॥ गावहिं सुर्नाह सदा मम लीला । हेतु रहित पर-हित-रत-साला । सुनु मुनि साधुन्ह के गुन जेते । कहि न सकहिँ सारद सुति तेते ॥४॥ सदा मेरी लोला गाते ओर सुनते हैं, स्वार्थ रहित पराये की भलाई करने में लगे रहते प्रेमा॥ सद्धा छमा मन्त्री