पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०९

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रामचरित मानस । अपी रोग की औषधि, सुख देनेवाले श्रीजानकोजी के प्राणाधार, श्रीरामचन्द्र के नाम रूपी अमृत का निरन्तर पान करते हैं ॥२॥ साथ-मुक्ति जन्म-महि जानि, ज्ञान खानि अघहानि कर। जहैं बस सम्भु अवानि, सो कासी सेक्य कस न । मोक्ष की जन्मभूमि, ज्ञान की खान और पापों को नाश करनेवाली जान कर जहाँ शिव. पार्वतीजी निवास करते हैं, उस काशीपुरी की लेवा क्यों न कीजिए ! अर्थात् अवश्य हो काशी का सेवन करना चाहिए । "मुक्ति जन्म-महि' में कई प्रकार की ध्वनि है। जैसे-जो मोक्ष को जन्म भूमि है, जहाँ की भूमि मुक्ति जन्म है, जहाँ वसने से मुक्ति होती है, जहाँ मरने से मुक्ति हेरती है, जो सुक्ति की देनेवाली है और जिसका नाम लेने से मुक्ति होती है इत्यादि । कोई कोई इसे सोरठा में 'राम' की वन्दना का अर्थ करते हैं कि 'म' को निश्चय ही मुक्ति का जन्मदाता और को ज्ञान का भण्डार तथा पाप नाशक जान कर, जो शोक को नसाने के लिए तलवार हैशौर जिसमें शिव-पार्वती का मन बसता है, उस रामनाम का सेवन क्यों नहीं करते ! पर पह यथार्थ नहीं है। जरत सकल सुर-वृल्द, विषम गरल जेहि पान किय । तेहि न भजसि मन मन्द, को कृपाल अङ्कर सरिस ॥ सम्पूर्ण देवता-गण के जलते समय जिन्होंने भीषण विप पान किया, अरे नोच मन ! तू उन्हें नहीं भजता । शिवजी के समान झ्याल कौन है ? (कोई नहीं)। यहाँ काकु द्वारा कराठभ्वनि से और ही अर्थ ( कोई नहीं ) निकलना 'वक्रोक्ति अलंकार' है । जब देवता और दैत्यों ने मिल कर अमृत प्राप्त करने की इच्छा से समुद्र को मथा, तब अमृत के पीछे हलाहल विष निकला। उसकी ज्वाला ले सब जलने लगे। शिवजी की शरण जा कर पुकार मचायी। शिवजी ने दया वश विष पान कर के सब को रक्षा की। चौ-आगे चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक-पर्बत नियराया तह रह सचित्र सहित सुग्रीवाँ । आवत देखि अतुल-बल-सीवाँ रघुनाथजी फिर आगे चले और ऋष्यमूक-पर्वत के समीप पहुँचे। वहाँ मन्त्रियों सहित सुग्रीव रहते थे, उन्होंने अप्रमेय बल के इद (राम-लक्ष्मण) को आते हुए देख कर ॥ १ ॥ अति सभीत कह सुनु हुनुमाना । पुरुष जुगल बल-रूप-निधाना । धरि बटु रूप देखु त जाई । कहेतु जानि जिय सैन बुझाई ॥२॥ अत्यन्त भयभीत होकर कहा-हे हनूमान ! सुनिए; ये दोनों पुरुष बल और कप के स्थान है। तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण कर के जाकर देखो (यदि मेरा सन्देह) मन में और सममनारशारे से समझा कर कहना ॥२॥ १