पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८११

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७८ रामचरित मानस । चौकोसलेस दसरथ के जाये । हम पितु बचन मानि धन आये । नाम राम लछिमन दोउ भाई । सङ्ग नारि सुकुमारि सुहाई. ॥१॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हम अयोध्या के राजा दशरथजी के पुत्र हैं और पिता के वचन को मान कर वन में आये हैं । राम और लक्ष्मण नाम है, हम दोनों माई हैं, हमारे साथ सुन्दर सुकुमारी स्त्री थी ॥१॥ इहाँ हरी निसिपर वैदेही। बिम फिरहिँ हम खोजत तेही ।। आपन चरित कहा हम गाई। कहहु विप्र निज कथा बुझाई ॥२॥ यहाँ विदेहनन्दिनी को किसी राक्षस ने हर लिया, हे ब्राह्मण ! हम उन्हीं को ढूँढ़ते फिरते हैं। हमने अपना चरित तो गा कर कहा, है विप्र ! अब आप अपना वृत्तान्तं समझा कर कहिए ॥२॥ हनुमानजी के पूछने पर अपना परिचय ईश्वरत्व दर्शाने का गूढ़ भाव 'शूढ़ोतर अलंकार' है और गूढ ध्वनि भी है कि मुझ पर तो यह श्रापदा आ पड़ी जिससे वन में फिरता हूँ; किन्तु श्राप पर कौन सा सङ्कट है जो अंपने पवित्र व्रत विद्याध्ययन और गुरु सेश से : विरत हो. इस भीषण वन में फिर रहे हो! मनु पहिचानि परेउ गहि चरना । सो सुख उमा जाइ नहि बरना। पुलकित तन मुख आव न बचना । देखत रुचिर बेष. कै रचना ॥३॥ शिवजी कहते हैं-हे पार्वती ! प्रभु रामचन्द्रमो को पहचान कर हनूमान चरणों में लिपट गये, वह सुख कहा नहीं जा सकता। उनका शरीर पुलकित हो गया और मुख से वचन नहीं निकलता है, सुन्दर वेष की रचना (टकटकी लगा) देखते ही रह गये ॥३॥ यहाँ हनूमानजी को हर्ष रोमांच हो पाया और वाणी रुक गई, यह स्वरभंग सात्विक अनुभाव का उदय है। शेष प्रश्नो का उत्तर रामचन्द्रजी ने नहीं दिया कि मैं जगत् का कारण नर नारायण ईश्वर हूँ, फिर हनुमान ने उन्हें कैसे पहचान लिया ? उत्तर-जब रामचन्द्रजी विश्वामित्र के साथ चले थे तब हनूमानजी से वन में मिलने का वचन हुआ था और ब्रह्मा ने वानर रूप होने का निर्देश करते समय रामचन्द्रजी का वन आना कह रक्खा था ! तदनुसार परिचय मिलने पर हनुमानजी ने पहचान लिया । अथवा "कुशलानां समूहः कौशलं तस्य ईशः कौशलेसः, स चासो दशरथच अर्थात् जो सकल-कल्याण-भाजन गरुड़वाहन विष्णु के अवतार और सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं, वे वन में आये हैं। रामचन्द्रजी के वचनों का यह अर्थ समझ कर हनूमानजी ने उन्हें पहचान लिया। पुनि धीरज धरि अस्तुति कीन्ही । हरष हृदय निज-नाथहि चीन्ही । मार न्याउ मैं पूछा. साई। तुम्ह पूछहु कस नर का नाई ॥४॥ फिर धीरजः धारण कर के स्तुति की, अपने स्वामी को पहचान कर मन में प्रसव हुए । हनूमानजी ने कहा-हे स्वामिन् ! मैं ने जो पूछा, वह मेरा न्याय ही है अर्थात् मैं जीव . . . .