पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१२

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। पहचाना ॥५॥ चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७४६ हूँ; जीव को भ्रम होना स्वाभाविक है, पर श्राप तो ईश्वर हैं फिर मनुष्य को तरह आप कैसे पूछते हैं ? men तव माया बस फिरहि भुलाना । तात ' मैं नहिं प्रभु पहिचाना ॥५॥ आप की माया के अधीन हो कर भूला फिरता हूँ, इससे मैं ने स्वामी को नहीं दो०--एक मैं मन्द मोह बस, कुटिल हृदय अज्ञान । पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ, दीनबन्धु भगवान ॥२॥ एक तो मैं मूर्ख माह के अधीन, कुटिल हृदय और अज्ञानी हूँ। हे दीनबंधु भगवन् ! प्रभो ! श्राप ने मुझे भुला दिया (तब कैले सचेत रह सकता हूँ) ॥२॥ भूलने का एक ही कारण भूर्खता पर्याप्त है, तिस पर मोहाधीन, कुटिल हदय, मशानी होना और खामी का भूसना कई एक हेतु उपस्थित हैं; द्वितीय' समुच्चय अलंकार' है। चौo-जदपि नाथ बहु अवगुन मारे । सेकक प्रभुहि परइ जनि मारे । नाथ जीव. तवमाया मोहा । सो निस्ताइ तुम्हारेहि छोहा ।।१॥ हे नाथ ! यद्यपि मुझ में बहुत अवगुण हैं, परन्तु मालिक को सेवक की भूल न पड़नी चाहिए । हे स्वामिन् ! जीव श्राप को भाया से मोहित रहता है, वह आप ही की कृपा से छुटकारा पाता है ॥ अपना दुर्गुण एवम् जीवत्व तथा स्वामी के गुण और ईश्वरत्व कथन में अपनी ओर कृपा सम्पादित करने का भाव गूढ़ व्यग है। तापर मैं रघुबोर दोहाई । जानउँ नहिँ कछु भजन उपाई। सेवक सुत पति मातु भरोसे । रहइ असोच बनइ प्रभु पाले ॥२॥ तिस पर मैं रघुवीर की सौगन्द खा कर कहता हूँ कि कुछ भी भजन के उपायों को नहीं जानता। सेवक स्वामी के भरोसे और बालक माता के भरोले निश्चिन्त रहते हैं, हे स्वामिन् । उन्हे (स्वामी और माता को) उनका पालन करना ही पड़ता है ॥२॥ रघुनाथजी की सौगन्द कर के भजन के उपायों से हनूमानजी का मुकर जाना, एकमात्र खामी की महान उदारता प्रकट करने का भाव 'प्रतिषेध अलंकार' है। यथा संख्य भी है। अस कहि परेउ, चरन लपटाई। निज-तनु प्रगठि प्रीतिउर छाई । तब रघुपति उठाइ उर लावा । निज-लोचन-जल सीहि जुड़ावा ॥३॥ ऐसा कह कर चरणों पर गिर कर लिपट गये; हदय में प्रीति छा गई, अपना शरीर प्रकट कर दिया। तबरघुनाथजी ने उठा कर एदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से साँच कर उन्हें ठण्डाकिया ॥३॥ प्रथम बार प्रभुको पहचान कर ब्रह्मचारी के रूप में पाँव पड़े थे तब रामचन्द्रजी ने हदय से नहीं लगाया किन्तु जब छिपाव त्याग कर पैर पर पड़े तब भगवान ने उठा र छाती से लगा लिया । प्रभुसचाई से प्रसन्न होते हैं, छल से नहीं। 1