पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१३

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11 ७५० रामचरित मानस । सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना । तैं ममप्रिय लछिमन ते दूना । समदरसी सोहि कह सब कोऊ । सेवक प्रिय अनन्य-गति सेोऊ || रामचन्द्रजी ने कहा-हे हनूमान ! सुनो, मन में अपने को थोड़ा न मानो, तू मुझे लक्ष्मण से दूना प्यारा है । मुझे सब कोई समदर्शी कहते हैं, पर जिन सेवकों की अनन्यगति (दूसरे का भरोसा नहीं) है, वे ही मुझे प्यारे हैं ॥ ४ ॥ शंका-मिलते ही रामचन्द्रजी ने कहा कि तुम मुझे लक्ष्मण से दूने प्रिय हो, इसका क्या कारण है ? उत्तर-(१) लक्ष्मण अकेले मेरे सेवक हैं और तू मेरा तथा लक्ष्मण दोनों का सेवक है। (२) लक्ष्मण के रहते जानकी हरी गई और तेरे द्वारा मिलेगी। (३) लक्ष्मण से प्यार में दो नहीं भर्थात् तुल्य ही प्रिय हो इत्यादि । दो०-सा अनन्य जाके अखि, मति न दरइ हनुमन्त । मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामि भगवन्त ॥३॥ हे हनूमान ! जिसकी ऐसीधुद्धि नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ गौर चराचर समेत (दृश्य. मानमात्र) मेरे स्वामा भगवान् के रूप हैं, वह अनन्य सक है ॥ ३ ॥ चौ० हेरिज पवल सुत पति अनुकूला । हृदय हरष बीती सब सूला नाथ सैल पर कपिपति रहई । सेा सुग्रीव दास तव अहई ।१॥ स्वामी को अनुकूल देख कर पवनकुमार मन में प्रसन्न हुए और सब चिन्ता मिट गई। उन्होंने कहा-हेनाथ ! पर्वत पर वानरराज रहता है, वह सुग्रीव श्राप का सेवक है ॥ १॥ तेहि सन नाथ सइन्त्री कोजे । दीन जानि तेहि अभय' करीजे ॥ सो सोता कर खोज कराइहि । जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ॥२॥ हे स्वामिन् ! उससे मित्रता कीजिए और उसे दुखी जान अभय कर दीजिए । वह जहाँ तहाँ फरोड़ो बन्दर भेज कर सीताजी की खोज करावेगा ॥२॥ एहि बिधि सक्कल कथा समुहाई। लिये दुअउ जन पीठि चढ़ाई । जब सुग्रीव राम कह देखा । अतिसय जनम धन्य करि लेखा ॥३॥. इस प्रकार सारी कथा समझा कर दोनों जनों को पीठ पर चढ़ा लिया। जब सुग्रीव ने रामचन्द्रजी को देखा, तव उन्होंने अपने जन्म को अतिशय धन्य कर के माना ॥३॥ सादर मिलेउ नाइ पद माथा । मैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ॥ कपि कर मन बिचार एहि रीती । करिहहि बिधि मासन ये प्रोतो ॥४॥ चरणों में मस्तक नवा कर आदर से मिले, छोटे भाई लक्ष्मण के सहित रघुनाथजी ने सुग्रीव को हृदय से लगाया । सुग्रीव मन में इस तरह विचार करते हैं कि, या विधाता ! मुझ से ये प्रेम (मित्रता) करेंगे? ॥४॥