पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१६

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७५३ इहाँ साप बस आवत नाही। तदपि समीत रहउँ मन माहीं ॥ सुनि सेवक दुख दीनदयाला । फरकि उठी दोउ भुजा बिसाला ॥७॥ यद्यपि यहाँ साप के अधीन वह नहीं पाता, तो भी मन में भयभीत रहता हूँ सेवा के दुख को सुग कर दीनदयाल रामचन्द्रजी की दोनों विशाल भुजाएँ फड़क उठीं ॥७॥ शाप रूपी प्रतिवन्धक के रहते हुए सुग्रीव का डर बना रहना 'तृतीय विभावना अलं' कार' है। यहाँ 'दीनदयाल' शब्द सामिप्राय है, क्योंकि दोनोंपर दया करनेवालेकी भुजाएँ दीन के दुःख को सुनकर दयावीरता से फड़कती हैं, 'परिकराङ्कुर अलंकार' है। दो०-सुनु सुग्रीव मारिहउँ, बोलिहि एकहि बान । ब्रह्म-रुद्र सरनागत, गये न उबरिहि प्रान ॥६॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हे सुग्रीव ! सुनो, मैं बाली को एकही घाण से मागा। फिर ब्रह्मा और रुद्ध की शरण जाने पर भी उसके प्राण न बचेगेमा चौ०-जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि बिलोकत पालक मारी। निज-दुख-गिरि-सम रज करि जाना। मित्र क दुखरज मेरु समाना॥१॥ जो मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से भारी पोप लगता है। पहाड़ के बरा- घर अपने दुःख को धूल के समान जाने और धूल के तुल्य मित्र के दुःख को सुमेरु पर्वत के समान समझे ॥१॥ जिन्ह के असि अति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ॥ कुपथ निवारि सुपन्य चलावा । गुन प्रगटइ अवगुनहिँ दुरावा ॥२॥ जिनको सहजही ऐसी नहीं पाती, वे मुख काहे को हड करके मित्रता करते हैं । मित्र का तो धर्म यह है कि-धुरे रास्ते को छुड़ाकर अच्छे मार्ग पर चलावे, गुण को प्रसिद्ध करे और भवगुणों को छिपावे ॥२॥ देत लेत मन सङ्क न धरई। बल अनुमोन सदा हित करई ॥ बिपतिकाल कर सतगुन नेहा । खुति कह सन्त मित्र गुन एहा ॥३॥ देने लेने में मन में सन्देह न रक्ने, घल और विचार से सदा भलाई करे। आपदकाल में सौगुना स्नेह करे, मित्र का यह गुण वे तथा सन्तजन कहते हैं ॥३॥ आगे कह मृदु बचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई ॥ जाकर चित्त अहिंगति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥४॥ जो सामने मीठे वचन बनाकर कहता हो और पीठ पीछे मन में कुटिलता रख कर बुराई करता हो । हे भाई ! जिसके चित्त की चाल सांप के समान है, ऐसे दुष्ट मित्र को त्यागने ही में भलाई है nen