पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१८

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७५५ चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ये संब राम-प्रगति के बाधक । कहहिं सन्त तव पद अवराधक । सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं । माया कृत परमारथ नाहीं ॥९॥ श्राप के चरणों की आराधना करनेवाले लन्तजन कहते हैं कि ये सब रामभक्ति के बाधक हैं। शत्रु मित्र, सुख और दुःख संसार में माया के किये हुए हैं, इनसे (जीव को) मोक्ष नहीं, प्राप्त होता En सुख-सम्पत्ति श्रादि आदरणीय वस्तुओं को रामभक्ति में बाधा उपस्थित करनेवाला मान कर त्याग योग्य ठहराना 'तिरस्कार अलंकार' है। तत्वानुसन्धान द्वारा ऐहिक पदार्थों के विषय में तिरस्कार उत्पन्न होना निर्वेद स्थायीभाव' है। बालि परम-हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥ सपने जेहि सन होइ लराई । जागे समुमत मन सकुचाई ११०॥ हे रामचन्द्रजी ! बाली मेरा परम हितैषी है; जिसकी कृपा से दुःख के नखानेवाले श्राप मुझे मिले । जिससे सपने में लड़ाई हो; किन्तु जागने पर समझ कर मन लकुचा जाता है (मेरी बाली के सम्बन्ध में ठीक यही दशा) हुई है ॥१०॥ बाली के शत्रु ता रूपी दोष को हितैषिता रूपी गुण कहना 'लेश अलंकार' है। अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती । सब तजि अजन करउँ दिन राती। सुनि विराग सज्जुत कपि बानी । बोले बिहँसि राम धनु-पानी ॥११॥ हे प्रभो ! अब इस तरह कृपा कीजिये कि सब त्याग कर दिन रात आपका भजन कर। सुप्रीव की वैराग्य संयुक्त वाणी सुन कर हाथ में धनुष धारण करनेवाले रामचन्द्रजी हँस कर बोले ॥११॥ जो कछु कहेहु सत्य सच साई । सखा बचन मम मृषा न होई ॥ नट मरकट इव सबहि नचोवत । राम खगेस बेद अस गावत ॥१२॥ जो कुछ कहते हो वह लव सत्य ही है, पर हे सखे ! मेरा वचन भूटा नहीं होता । काग- भुशुण्डजी कहते हैं-हे गरुण ! वेद ऐसा गान करते हैं कि रामचन्द्रजी सब को नट मर्कट की तरह नचाते हैं ॥१२॥ लै सुग्रीव सङ्ग' रघुनाथा । चले चाच-सायक गहि हाथा ॥ तब रघुपति सुग्रीव पठावा । गजैसि जाइ निकट बल पावा ॥१३॥ रघुनाथजी हाथ में धनुष बाण लिये हुए सुग्रीव को साथ में ले कर चले। तव राम- चन्द्रजी ने सुग्रीव को भेजा, वह बल पाकर नगर के समीप जाकर गर्जा ॥१३॥ सुनत बालि क्रोधातुर धावा । गहि कर चरन नारि सलुझावा ॥ सुनु पति जिन्हहिँ मिलेउ सुग्रीवाँ । ते दोउ बन्धु तेज-बल-सीवाँ ॥१४॥ सुनते ही वाली क्रोध से अधीर होकर दौड़ो, उसका पाँव हाथ से पकड़ कर स्त्री (तारा)