पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८२४

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७५९ हैं, परन्तु अन्त में किसी के समक्ष आकर रामचन्द्र खड़े नहीं होते जैसा कि मेरे सामने खड़े हैं। अथवा अन्तकाल में राम नहीं कहते बनता सो श्राप प्रत्यक्ष विद्यमान है इत्यादि। मम लोचन गोचर सोइआवा । बहुरि कि प्रभु असंबनिहि बनावा ॥३॥ वाही परमात्मा मेरी आँखों के सामने आ कर प्राप्त हैं, हे नाथ ! क्या ऐसा.बनाव फिर बन सकता है ? (कदापि नहीं) ॥३॥ हरिगीतिका-छन्द । सो नयन गोचर जासु गुन नित, नेति कहि खुति गावहीं । जिति पवन मन गो निरस करि मुनि, ध्यान कबहुँक पावहौं । माहि जानि अति अभिमान बस, प्रभु कहेहु राखु सरीरही । अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु, बारि करहि बरही ॥१॥ वे परमेश्वर धानों को प्रत्यक्ष हुए हैं, जिन के गुणों को घेद इति नहीं कह कर निरन्तर गान करते हैं । मुनि लोग श्वास को जीत कर, मन को इन्द्रियों से विठक कर के जिन्हें कभी ध्यान में पाते हैं । हे प्रभो ! मुझे अत्यन्त अहङ्कार के अधीन समझ कर ही आपने शरीर रखने के लिये कहा। भला ऐसा कौन मूर्ख होगा? जो हठ कर के कल्पवृक्ष को काट बबूर , में पानी देगा! ॥२॥ • उपमेय वाक्य 'शरीर रखना' और उपमान वाक्य कल्पवृक्ष काट कर बवूर में पानी' देना है। दोनों वाययों में विम्ब प्रतिविम्ब भाव अर्थात् अय शरीर रखना कल्पतरु काट कर बबूर सोचने के घरावर होगा इष्टान्त अलंकार है। . अब नाथ करि करुना बिलोकहु, देहु जो बर माँगऊँ। जेहि जानि जनमउँ कर्म बस, तहँ राम-पद अनुरागऊ । यह तनय मम सम बिनय बल कल्यान प्रद प्रभु लीजिये। गहि बाँह सुर-नर नाह आपन, दास अङ्गद कीजिये ॥२॥ हे नाथ ! अब दया कर के मेरी ओर देखिये और जो मैं माँगता है वह घर दीजिये। मैं अपने कर्मों के अधीन होकर जिस योनि में जन्म लेॐ, यहाँ श्राप के चरणों में प्रम कर। हे कल्याण के देनेवाले स्वामी ! यह मेरा पुत्र विनय और बल में मेरे समान है, इसको लीजिये। हे देवता और मनुष्यों के नाथ! आम की बाँह पकड़ कर इसको अपना दास कीजिए ॥२॥ दो०-राम चरन दृढ़ प्रीति करि, बालि कीन्ह तनु त्याग । सुमन-माल जिमि कंठ तें, गिरत न जानइ नाग ॥१०॥ रामचन्द्रजी के चरणों में द प्रेम कर के बाली ने शरीर त्याग किया। (उसने बिना कष्ट के इस तरह शरीर छोड़ा) जैसे फूल की माला गले से गिरने में हाथो को न मालूम हो ॥१०॥