पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८२५

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रामचरितमानस । चौ-राम बालि निज धाम पठावा। नगर लेग सब व्याकुल धावा ॥ 'नाना बिधि बिलाप कर तारा । छूटे केस न देह सँभारा ॥१॥ रामचन्द्रजी ने बाली को अपने धाम (वैकुंठ) को भेज दिया, नगर के सब लोग प्याकुल होकर दौड़े। तारा अनेक प्रकार विलाप करने लगी, उसके बाल छूट गये हैं और शरार की सुध बुध नहीं है ॥१॥. पति के प्राणनाश ले तारा के मन में शोक स्थायीभाव है। रोदन, नानो विलाप अनुभाव और विषाद, चिन्ता, ग्लानि, अपस्मारादि सञ्चारीभावों से पुष्ट हे 'करुणा रस संज्ञा को प्राप्त हुआ है। तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ज्ञान हरि लीन्ही माया । छित्ति जल पावक गगन समीरा । पञ्च-रचित अति अधम सरीरा ॥२॥ तारा को व्याकुल देख कर रघुनाथजी ने उसे ज्ञान देकर अशान को हर लिया। उन्होंने कहा-पृश्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन्ही पाँचौ ले यह अत्यन्त अधम शरीर बना है ॥२॥ प्रगट सो तनु तव आगे सावा । जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥ उपजा ज्ञान चरन तब लागी । लोन्हसि परम भगति बर माँगी ॥३।। वह शरीर तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष सो रहा है और जीव अविनाशी है (उसका कभी माश ही नहीं होता, फिर) तुम किसके लिए रोती हो। तारा को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब वह चरणों में लगी और श्रेष्ठ भक्ति का वर माँग लिया ॥३॥ उमा दारु-जोषित की नाई । सबहि नत्रावत राम गोसाई॥ तब सुग्रीवहिं आयसु दीन्हा । मृतक-कर्म विधिवत सब कीन्हा ॥४॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! स्वामी रामचन्द्रजी सभी को कठपुतली की तरह नचाते हैं । तब सुग्रीष को आशा दी, उन्हों ने मृतक कम सब विधि-पूर्वक किया ॥४॥ राम कहां अनुजहि समुझाई । राज देहु सुग्रीवहिं जाई ॥ रघुपति चरनं नाइ करि माथा । चले सकल प्रेरित रघुनाथा ॥५॥ रामचन्द्रजी ने लधु बन्धु लक्ष्मण को समझा कर कहा कि जा कर सुग्रीव को राज- तिलक दे पात्रो । रघुनाथजी की आज्ञानुसार सब उनके चरणों में सिर नवा कर चले ॥५॥ दो-लछिमन तुरत बोलाये, पुरजन विप्र-समाज । राज दीन्ह सुग्रीव कहँ, अङ्गद कह जुबराज ॥११॥ लक्ष्मणजी ने तुरन्त पुरवासीजन और ब्राह्मण वृन्द को बुलवा कर सुग्रीव को राज्य और अंगद को युवराजपद दिया ॥ ११ ॥ ।