पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८२७

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७६२ रामचरित मानस । चौ०-सुन्दर बन कुसुमित अंति सोश । गुञ्जत मधुपनिकर मधु लोमा। कन्द मूल फल पत्र सुहाये । भये बहुत तें प्रभु आये ॥१॥ सुन्दर वन फूल कर अत्यन्त शोभायमान हो रहा है, भँवरों के झुण्ड मकरन्द में लुब्ध हो कर गंज रहे हैं । जब से प्रभु रामचन्द्रजी ( पर्वत पर ) श्राये, तत्र से वहाँ कन्द, मूल, फल और पते अधिक सुहावने हो गये हैं ॥१॥ देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥ मधुकर-खग-मृग-तनु धरि देवा । करहिँ सिद्ध मुनि प्रभु के सेवा ॥२॥ देवताओं के राजा रामचन्द्रजी सुन्दर अनुपम पर्वत को देख कर छोटे भाई समय के सहित वहाँ रहने लगे। देवगण भ्रमर, पक्षी और मृगों का रूप धारण करके तथा सिद्ध मुनि स्वामी की सेज करते हैं ॥२॥ मङ्गल-रूप भयउ बन तब तें । कीन्ह निवास रमापति जय तें ॥ फटिक-सिला अति सुन सुहाई । सुख-आसीन तहाँ दोउ भाई ॥३॥ जव ले लक्ष्मीकान्त रामचन्द्रजी ने निवास किया, तब से वह वन मङ्गल का रूप हो गया। अत्यन्त सुहावना सफेर स्कटिक का चट्टान है, वहाँ दोनों भाई सुख से विराज. मान हैं ॥३॥ 'रमापति' संज्ञा साभिप्राय है, क्योंकि लक्ष्मीकान्त ही अनैश्वर्यवान को ऐश्वर्यवान और माल रूप कर सकते हैं । यह परिकराङ्कुर अलंकार' है । स्फटिक एक प्रकार का पत्थर है. जो सफ़ेद रङ्ग फा; चिकना और मुलायम होता है। कहत अनुज सन्न कथा अनेका । अगति बिरति नृप-नीति बिबेका ॥ बरषाकाल मेघ ना छाये। गरजत लागत परम-सुहाये ॥४॥ भक्ति, वैराग्य, राजनीति और मान की नाना कथाएं छोटे भाई लक्ष्मणजी से कहते हैं। वर्षाकाल के मेघ आकाश में छाये हैं, वे गरजते हैं जो परम सुहावना लगता है ॥ ४ ॥ दो-लछिमन देखहु मोर-गन, नाचत बारिद पेखि । गृही बिरति-रत हरष जस, बिष्नु भगत कह देखि ॥१३॥ हे लक्ष्मण ! देखो, बादलों को देख कर मुरैले कैसे नाच रहे हैं, जैसे रामभक्त को देख कर वैराग्य में तत्पर गृहस्थाश्रमी प्राणी प्रसन्न होते हैं ॥ १३ ॥ चौ०-धन घमंड नभ गरजत चोरा । प्रिया हीन डरपत मन मारा । दामिनि दमक रह न धनमाहौँ। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं ॥१॥ आकाश में बादल गर्व से भीषण गर्जना करते हैं, जिससे प्रिया विहीन होने के कारण मेरा मन डरता है ! विजली की चमक बादलों में कैसे नहीं ठहरती है, जैसे दुष्टों की प्रीति 'स्थिर नहीं रहती ॥ १॥