पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३१

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७६४ रामचरित मानस । 'ससि-सम्पन्न सोह महि कैसी। उपकारी के सम्पति जैसी ॥ निसितम धन खझोत बिराजा । जनु दम्झिन्ह कर मिला समाजा ॥३॥ कृषी से भरीपूरी पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसे उपकारी पुरुप की सम्पत्ति सोहती हो । रात के अंधेरे में जुगनुओं का समूह ऐसा विराज रहा है, मानों पाखण्डियों का समाज एकत्रित हो ॥३॥ महावृष्टि चलिफूटि कियारी । जिमि सुतन्त्र भये बिगरहिँ नारी ॥ कृषी निरावहिं चतुर किसाना । जिमि बुध सजहि मोह-मद माना ॥४॥ भारी वर्षा से क्यारियाँ कैसे फूट चली हैं, जैसे स्वतन्त्र होने पर स्त्रियाँ बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेती को इस प्रकार निराते हैं, जसे बुद्धिमान लोग मोह, मद और अभि- भान को दूर करते हैं ॥४॥ देखियत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धरम पराही । असर बरसइ हन नहिजामा । जिमि हरिजन हिय उपज न कामा ॥३॥ चकवापक्षी नहीं देख पड़ते हैं, जैसे फलियुग को पाकर धर्म (पृथ्वी से) भाग आते हैं । ऊसर में वर्षा होने पर भी.घास कैसे नहीं जमती, जैसे हरिभको के हृदय में कामबासना नहीं उत्पन्न होती ॥५॥ बिबिध जन्तु सङ्कुल महि भ्राजा । प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥ जहँ तह रहे पथिक थकि नाना । जिमि इन्द्रियगन उपजे ज्ञाना ॥६॥ अनेक प्रकार के जीवे से पृथ्वी ऐसी परिपूर्ण होकर शोभित है, जैसे अच्छे (धारमा और नीतज्ञ) राजा को पा कर प्रजा बढ़ती है। नाना यात्री जहाँ तहाँ ऐसे टिक गये हैं, जैसे शान उत्पन्न होने पर इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं | दो-कबहुँ प्रचल मह मारुत, जहँ तहँ मेघ बिलाहिँ । जिमि कपूत के उपजे, कुल सद्धर्म नसाहि । कमी जोरदार हवा के चलने से जह तहाँ बादल कैसे लोप हो जाते, जैसे कुपुत्र उत्पन्न होने से कुल के श्रष्ठ धर्म नष्ट हो जाते हैं। कबहुँ दिवस महं निबिड़ तम, कबहुँक प्रगट पतन । बिनसइ उपजइ ज्ञान जिमि, पाइ कुसङ्ग सुसङ्गः ॥ १५ ॥ कभी दिन में घना अन्धकार छा जाता और कभी सूर्य प्रकट होते हैं। जैसे कुसंग पा कर ज्ञान नष्ट होता और सुसङ्ग पाकर बढ़ता है ॥१५॥. . चौ० बरषा बिगत सरदरितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई ॥ फूले कास सकल महि छाई । जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई ॥१॥ हे लक्ष्मण ! देना, वर्षाऋतु व्यतीत हुई और शरदऋतु आगई, यह बहुत ही सुहावनी के m