पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३२

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७६५ लगती है । सारी पृथ्वी पर कास फूल कर छाई हुई है, वह मान वर्षा की वुढाई प्रगट कर शरीरधारियों का वृद्ध होकर वान श्वेत होना सिद्ध आधार है, परन्तु वर्षाऋतु शरीरधारी जीव नहीं है जो उसके बाल सफेद होकर बुढ़ाई प्रगट करेंगे। फूला हुई कास के द्वारा इस अहेतु में हेतु की कल्पना करना 'सिद्ध विषया हेतृत्प्रेक्षा अलंकार' है। उदित अगस्त पन्ध जल सेोखा । जिमि लोभहि सोखइ सन्तोखा ।। सरिता-सर निर्मल जल सोहा । सन्त हृदय जस गत-सद मोहा ||२|| अगस्त्य तारा का उदय हुश्रा और रास्ते का पानी कैसे सूख गया, जैसे लोभ फो सन्तोष सुखा देता है । नदी और तालावों का पानी ऐसा निर्मल शोभित हो रहा है, जैसे मद मोह से रहित सन्तों का हृदय स्वच्छ रहता है ॥२॥ रस रस सूख सरित सर पानी । ममता त्याग करहिँ जिमि ज्ञानी ।। जानि सरद-रितु खजन आये । पाइ समय जिमि सुकृतं सुहाये ॥३॥ धीरे धीरे नदी और तालाबों का पानी इस तरह चूस चला है, जैसे ज्ञानी मनुष्य क्रमशः ममता को त्यागते हैं। शरयऋतु जान कर खञ्जन पक्षी आ गये, जैसे समय पाकर अच्छी करनी सुहावनी लगती है ॥३॥ पङ्कन रेनु सौह असि धरनी । नीति निपुन नूप के जसि करनी ॥ जल सङ्कोच निकल भइ मीना । अबुध कुटुम्बी जिमि धन हीना । बिना कीचड़ और धूल के धरती ऐसो मुहावनी लगती है, जैसे नीति निपुण राजा की करनी शोभित होती है। पानी के घटने से मछलियाँ इस तरह व्याकुल हुई हैं, जैसे मूर्ख कुटुम्बी धनहीन हो जाने पर अकुलाता है ॥४॥ बिनु घन निर्मल साह अकासा । हरिजन इक परिहरि सब आसा । कहुँ कहुँ वृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक पाव प्रगति जिमि मारी ॥ बिना बादलों के निर्मल आकाश शमाघमान हो रहा है, हरिभक्तों के समान सारी श्राशाए त्याग कर (जैसे वे स्वच्छ शोभित होते हैं)। कहीं कहीं शरदऋतु की थोड़ी वर्षा हो जाती है, जैसे कोई एक प्राणी मेरी भक्ति पाता है ॥५॥ दो०-चले हरषि तजि नगर नप, तापस बनिक भिखारि। जिमि हरिभगति पाइ खम, तजहि आखमी चारि ॥१६॥ राजा, तपस्वी, वनिए और भितुक प्रसन्न हो नगर छोड़ कर ऐसे चले हैं जैसे हरि- भक्ति पा कर चारों आश्रमवाले परिश्रम त्याग देते हैं ॥१॥ चौ०-सुखी भीन जे नीर अगाधा । जिमि हरि-सरन न एकउ बाधा ॥ फूले कमल साह सर कैसा । निर्गुनब्रह्म सगुन भये. जैसा ॥१॥ जो मछलियाँ गहरे पानी में हैं वे ऐसी प्रसन्न हैं, जैसे भगवान् की शरण में कोई भी