पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७६६ रामचरित-मानसा दुःख नहीं रहता। तालाबों में कमल कैसे शोभित हो रहे हैं जैसे निगुण-ब्रह्म शरीरधारी होने पर लेहता है ॥२॥ गुज्जत-मधुकर मुखर अनूपा । सुन्दर खग रव नाना रूपा ॥ चक्रमाक मन दुख निसि पेखो । जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी ॥२॥ भँवरों के गुजार का अनुपम शब्द हो रहा है और सुन्दर पक्षी तरह तरह की बोली बोल रहे हैं। रात्रि को देख कर चकवा पक्षी मन में ऐसा दुखी है, जैसे दुष्ट प्राणी पराये की सम्पदा देख कर जलते हैं ॥२॥ चातक रटत तृषा अति ओही । जिमि' सुख लहइ न सङ्कर द्राही । सरदातप निलि ससि अपहरई । सन्त दरस जिमि पातक टरई ॥३॥ पपीहा रस्ता है उसको बड़ी प्यास है, जैसे शिव द्रोहा सुख नहीं पाता वैसे वर्षा होने पर भी वह प्यासा ही रहता है)। शरदऋतु के ताप (घाम के विप) को रात में चन्द्रमा कैसे हर लेते हैं, जैसे सन्तों के दर्शन से पाप दूर हो जाता है ॥३॥ देखि इन्दु चकार-समुदाई। चितवहि जिमि हरिजन हरि पाई ॥ भसक-दस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज-द्रोह किये कुल नासा ॥४॥ चकोरों का समुदाय चन्द्रमा को देख कर ऐसी प्रसनता से निहार रहा है, जैसे हरिभक्त- जन भगवान को पा कर चाव से देखते हैं। मच्छड़ और डॉस जाड़े के डर से ऐसे नष्ट हो गये, जैसे ब्राह्मण के गोह ले कुल का नाश हो जाता है ॥४॥ दो-भूमि जीव सङ्कुल रहे, गये सरदरितु पाइ । सदगुरु मिले जाहि जिमि, संसय-चम-समुदाइ ॥१७॥ पृथ्वी पर जो समूह जन्तु थे वे शरद ऋतु पा कर ऐसे चले गये, जैसे अच्छे गुरु के मिलने पर सन्देह और भ्रम का समूह भाग जाता है ॥१७॥ वर्षा और शरद वर्णन में उदाहरण का बाहुल्य है। चौ० बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता के पाई। एक बार कैसेहु सुधि जानउँ । कालहु जीति निमिष महँ आनउँ ॥१॥ हे तात ! बरसात बीत गई और खच्छ शरद ऋतु आई, परन्तु सीता की खबर नहीं मिली। एक बार किसी तरह से भी पता मालूम हो जाय तो पलमात्र में काल को भी जीत कर ले आऊँ॥१॥ कतहुँ रहउ जाँ जीवति होई । तात जतन करि आनउ साई ॥ सुग्रीवहुँ सुधि मारि बिसारी । पावा राज-कोस-पुर-नारी ॥२॥ तात! कहीं भी हो यदि जीवित हो तो प्रयत्न कर के उसे तुम ले पानी। राज्य, भण्डार, नगर और स्त्री को पा कर सुग्रीव ने भी मेरी सुध भुला दी ॥२॥