पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३४

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड रामन्द्रजी ने अपने प्रति तो यह कहा कि यदि कालवश हुई हो तो काल को जीत कर मैं ले आऊँ और जीती हो चाहे कहीं भी हो तब तुम उपाय कर के ले पायो । जेहि सायक मारा मैं बाली । तेहि सर हतउँ मूढ़ कहँ काली ॥ जासु कृपा छूटहि मद-माहा । ता कह उमा कि सपनेहुँ कोहा ॥३॥ जिस पाण से मैं ने बाली को मारा, उसी पाण से कल्ह मूर्ख सुग्रीव को भी माऊँगा। 'शिवजी कहते हैं- हे उमा ! जिनकी कृपा से मद मोह छूट जाते हैं, क्या उनको स्वप्न में क्रोध हो सकता है ? ( कदापि नहीं) ॥३॥ जानहिँ यह चरित्र मुनि ज्ञानी । जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ॥ लछिमन क्रोधवन्त प्रभु जाना । धनुष चढाइ गहे कर बाना ॥४॥ शानीमुनि इस चरित्र को जानते हैं, जिन्होंने रघुनाथजी के चरणों में प्रीति मान लो है । लक्ष्मणजी ने स्वामी को क्रुद्ध जान धनुष चढ़ा कर हाथ में बाण लिया ॥ ४ ॥ दो-तब अनुजहि समुझावा, रघुपति करुनासी । भय देखाइ लेइ आवहु, तात सखा सुग्रीव ॥१८॥ तब करुणासीम रघुनाथजी ने छोटे भाई को समझाया-हे तात । सुग्रीव मिझ (अद- एडनीय) है, उसे भय दिखा कर लिवा लामो ॥१॥ ची-इहाँ पवनसुतहृदय बिचारा । राम-काज सुग्रीव बिसारा । निकटजाइचरनन्हिसिर नावा। चारिहुबिधितेहि कहिसमुहावा॥१॥ यहाँ पवनकुमार ने मन में सोचा कि सुग्रीव ने रामचन्द्रजी के कार्य को भुला दिया। पास जाकर चरणों में मस्तक नवाकर चारों तरह (साम, दाम, दण्ड, भेद के अनुसार) कह कर उन्हें समझाया ॥१॥ सुनि सुग्रीव परम-भय माना। बिषय मार हरि लीन्हेउ ज्ञाना । अब मारुत-सुत दूत समूहा । पठवहु जहँ तहँ बानर-जूही ॥२॥ सुनकर सुग्रीव बहुत ही भयभीत हुए, उन्हों ने कहा-विषय ने मेरा शान हर लिया । हे पवनकुमार ! अब समूह दुत मुड के झुंड बन्दर जहाँ तहाँ भेजो ॥२॥ कहेहु पाख महँ आव न जाई । मारे कर ता कर बध होई॥ तब हनुमन्त बोलाये दूता । सब कर करि सनमान बहूता ॥३॥ कह देना कि जो कोई पन्द्रह दिन में न लौट श्रावेगा, उसका वध मेरे हाथ से होगा। ' तब हनूमानजी ने दूतों को बुलाया और सब का बहुत सम्मान कर के ॥३॥ भय अरु प्रीति नीति देखराई । चले सकल चरनन्हि सिर नाई ।। एहि अवसर लछिमन पुर आये । क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाये ॥६॥ भय, प्रीति और नीति दिखाया,सब चरणों में सिर नवा कर चले । इसी समय लक्ष्मण-