पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३८

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1 चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७७१ मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु । रामचन्द्र कर काज सँवारेहु ॥ भानु पीठि सेइय उर आगी। स्वामिहि सर्व भाव छल त्यागी ।। मन, कर्म और वचन से षही उपाय सोचना जिसमें रामचन्द्रजी का कार्य पूरा कर सको। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से सेवन करना चाहिये, परन्तु स्वामी की सेवा सब तरह का छल छोड़ कर स्नेह-पूर्वक करनी चाहिये ॥२॥ चौपाई के पूर्वाद्धं में साधारण घात कह कर फिर उसका समर्थन विशेष प्रमाणों द्वारा करना, 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार है। इस चौपाई के अर्थ में लोग तरह तरह के इष्टकूट गढ़ते हैं, परन्तु वह सब सार हीन है। तजि माया सेइय परलोका । मिटहिं सकल भव-सम्भव-सेका । देह धरे कर यह फल भाई । भजिय राम सब काम बिहाई ॥३॥ कपट छोड़ कर परलोक की सेवा करनी चाहिये, जिस में संसार से उत्पन्न सम्पूर्ण शोक मिट जाय । भाइयो। शरीर धारण करने का यही फल है कि सब काम त्याग कर रामचन्द्रजी को भजिए ॥३ सोइ गुनज्ञ साई बड़ भागी। जो रघुबीर-चरन-अनुरागी। आयसु माँगि चरन सिर नाई । चले हरषि सुमिरत रघुराई ॥४॥ वही गुणवान और वही बड़ा भाग्यवान है, जो रघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है। आशा माग चरणों में मस्तक नवा कर प्रसन्न हो रघुबीर का स्मरण करते हुए चले ॥१॥ पाछे पवन-तनय सिर नावा । जानि काज प्रभु निकट बोलावा ॥ परसा सीस सरोरुह-पानी । कर-मुद्रिका दीन्हि जन जानी ॥शा पीछे पवनकुमार ने मस्तक नवाया, काथ्य के योग्य समझ कर प्रभु ने समीप बुलाया। अपने कमल-हाथ उनके सिर पर स्पर्श कर के अपना सेवक जान कर हाथ की अंगूठी उतार कर दी ॥५॥ यहाँ लोग शङ्का करते हैं कि रामचन्द्रजी तपस्वी वेष में थे; उन्हों ने भाभूषणों को त्याग दिया था फिर मुद्रिका कहाँ थी जो दिया ? उत्तर-गमाजी के पार उतरने पर जानकीजी ने केवट को उत्तराई के बदले अँगूठी स्वामी के हाथ में दी; किन्तु उसने नहीं ली वही मुद्रिका महाराज के पास थी। बहु प्रकार सीतहि समुझायेहु । कहि बल घिरह बेगि तुम्ह आयेहु ॥ हनुमत जनम सुफल करि मोना। चलेउ हृदय धरि कृपानिधाना ॥६॥ रामचन्द्रजी ने कहा-बहुत तरह से सीता को समझाना, मेरे बल और वियोग को कह कर तुम जल्दी लौट आना । हनूमानजी ने अपना जन्म सफल कर के माना और हृदय में कृपानिधान रामचन्द्रजी को रख कर चले ॥६॥