पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८४

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lo 1 प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ज्ञानी, जिज्ञासु, अर्थार्थी और पार्न जिनकी गणना ऊपर कर आये हैं येही चार प्रकार के रामभक्त हैं । ज्ञानी-ईश्वर को जान कर भजनेवाले, जैसे-नारद श्रादि । जिज्ञासु-ईश्वर को जानने की इच्छा रखनवाले, जैसे परीक्षित आदि । अर्थार्थी-कार्य सिद्धि के लिए ईश्वर का स्मरण करनेवाले, जैसे-सुग्रीवादि । आर्त-दुःख में पड़ कर ईश्वर को याद करनेवाले, जैसे-गजेन्द्र, द्रौपदी श्रादि । इसी क्रम से ऊपर का वर्णन है । यह भगवद्गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा है-"चतुर्विधा भजन्ते माम् जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । पार्टी जिज्ञासुरार्थी शानी च भरतर्षभ"। चहूँ चतुर कहँ नाम अधारा । ज्ञानी प्रभुहि बिसेष पियारा । चहुँ जुग चहुँ खुति नाम प्रभाऊ । कलि बिसेष नाहँ आन उपाऊ ॥४॥ चारों चतुर भक्तों को नाम ही का आधार है, प्रभु रामचन्द्रजी को ज्ञानी अधिक प्यारा है। चारों युगों के लिए चारों वेदों में नाम की महिमा कही है, विशेषतः कलियुग के लिए तो दूसरा उपाय नहीं है ॥४॥ दो०-सकल कामना हीन जे, राम भगति रस लीन । नाम प्रेम पीयूष हृद, तिन्हहूँ किये मन मोन ॥२२॥ सम्पूर्ण कामनाओं से रहित होकर जो रामभक्ति के रस में डूबे हुए हैं। राम नाम के प्रेम रूपी अमृत के कुण्ड में उन्होंने अपने मनको मछली रूप बना रक्खा है ॥२२॥ सभा की प्रति 'नाम सुप्रेम-पियूष हुद' पाठ है । चौ०-अगुनसगुनदुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा मारे मत बड़ नाम दुहूँ ते । कियजेहि जुगनिज बस निज बूते ॥१॥ ब्रह्म के निर्गुण और सगुण दो स्वरूप हैं, जो कथन की शक्ति से परे, न जानने योग्य, आदि रहित और अनुपमेय हैं । मेरे मत में नाम दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से (सगुण- निर्गुण ) दोनों को अपने वश में कर लिया है ॥१॥ 'प्रौढ़ सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की। एक दारु गत देखिय एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू ॥२॥ पहले कह आये हैं कि-"को बड़ छोटकहत अपराधू । सुनि गुन-भेद समुझिहहिँ साधू मिहहिँ सज्जन मोरि दिठाई। सुनिहहिं बाल वचन मन लाई । अब अपना मत स्थापना कर कहना कि मेरे मत से नाम बड़ा है, इस विरोध भाव को दूर करने के लिए कहते हैं कि- सज्जन लोग इस सेवक की पूर्णवयस्कता ( जवानी ) न समझेगे, मैं अपने मन का विश्वास, प्रीति और अभिलाषा कहता हूँ । एक लकड़ी के भीतर ( अश्य रूप से व्याप्त ) और दूसरी प्रत्यक्ष दिखाई देती है, दोनों ब्रह्म का ज्ञान ( परिचय ) ठीक अग्नि के समान है ॥२॥ एक अग्नि जो काठ के भीतर रहती है, पर दिखाई नहीं देती, उसकी समता निर्गुण-ब्रह्म और दूसरी जो आँख से प्रज्वलित देख पड़ती है, उसकी समता सगुण ब्रह्म से है। 11 ॥