पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८४३

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. . रामचरित मानस । जानकीजी के न मिलने की 'चिन्ता' और प्राणनाश के भय से वानरों के मन में 'पावेग सञ्चारी भाव का उदय है। कह अङ्गद लोचन भरि बारी । दुहुँ प्रकार भइ मृत्यु हमारी ॥ इहाँ न सुधि सीता के पाई । उहाँ गये मारिहि कपिराई ॥२॥ श्रङ्गद आँखों में आँसू भर कर कहने लगे-हमारी दोनों तरह मृत्यु हुई। यहा जानकी जी की खबर नहीं मिली और वहाँ जाने पर वानरराज मार ही डालेंगे ॥२॥ मृत्यु के लिए एक ही कारण स्वामी का कार्य न होना पर्याप्त है, साथ ही सुप्रीष द्वारा मारे जाने का भय कथन 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। पिता बधे पर भारत माही । राखा राम निहोर न ओही ॥ पुनि पुनि अङ्गद कह सब पाहीँ । मरन भयेउ कछु संसय नाहीं ॥३॥ पिता के मारे जाने पर वे मुझे भी मार डालते, पर मेरी रक्षा रामचन्द्रजी ने की, इसमें सुग्रीव का एहसान नहीं है। बार बार अङ्गद सब से कहते हैं कि मरण हुमा. इस में कुछ . भी सन्देह नहीं है ॥३॥ अङ्गद को आकस्मिक भावोत्पन से चित्त विक्षोप होना त्रास सवारी भाव है। अङ्गद बचन सुनत कपि बीरा । बोलि न सकहिँ नयन बह नीरा ॥ छन एक सोच मगन होइ गयऊ। पुनि अस बचन कहत सब अयज॥४॥ अङ्गद की बात सुन कर वानर वीर चोल नहीं सकते, सब की आँखों से मांसू बह रहा है । एक क्षण भर सोच में डूब गये, फिर सब इस तरह वचन कहते भये ॥४॥ यहाँ सेोक स्थायीभाव है। अगदजी के वचन उद्दीपन विभाव और अवाक होकर आँखों से आँसू बहाना अनुभाव है । विषाद, चिन्ता, ग्लानि श्रादि समचारी भावें के योग से 'करुण रस' हुश्रा है। गुटका में सोच मगन होइ रहे. और 'वचन कहत सब भये' हम सीता के सोध बिहीना । नहिं जैहहिं जुबराज प्रथीना.॥ अस कहि लवन-सिन्धु-तट जाई । बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥३॥ हे प्रवीण युवराज सुनिए, हम लोग सीताजी की खोज लिए विना लौट कर न जायगे। ऐसा कह कर क्षार समुद्र के तीर जा सब बानर कुशा विछा कर बैठ गये ॥ ५॥ गुटका में 'इम सीता के सुधि लीन्हे बिना' पाठ है। करुणा के प्रवाह को साहस द्वारा रोक कर मन में यह न करना कि बिना पता लिए न लौटेंगे अर्थात् अवश्य खोज लगावेगे, आप घरावे नहीं 'धृति सञ्चारी भाव है। जामवन्त अङ्गद दुख देखी । कही कथा उपदेस बिसेखी ॥ तात राम कह नर जनि मानहु । निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ॥६॥ महादजी का दुःख देख कर जाम्बवान ने बहुत सी शिक्षा की बात कही। उन्होंने कहा हे तात ! रामचन्द्रजी को मनुष्य मत मानिए उन्हें निर्गुण-ब्रह्म, जन्म के बन्धन से रहित और अपराजित (जो किसी से जीता न गया हो ) समझो ॥६॥ .