पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८४४

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड । ७७५ हम सब सेवक अति-बड़ भागी । सन्तत सगुन-ब्रह्म-अनुरागी ॥७॥ हम सब निरन्तर सगुण-ब्राझ की सेवा के अनुरागी होने से बहुत बड़े भाग्यवान हैं ॥७॥ दो-निज इच्छा प्रभु 'अवतरह, सुर-महि-गो-द्विज लागि । सगुन उपासक सङ्ग तह, रहहिं मोच्छ-सुख त्यागि ॥२६॥ प्रभु रामचन्द्रजी देवता, पृथ्वी, गौ और ब्राह्मणों के हित अपनी इच्छा से जन्म लेते हैं। सगुण के उपासक भक्त उनके साथ यहाँ मोक्ष-सुख त्याग (शरीरधारी हो) कर रहते हैं ॥ २६॥ चौ०-एहि बिधि कथा कहहिँ बहु भाँती । गिरि कन्दरा सुनी सम्पाती। बाहेर होइ देखि बहु कीसा । मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥१॥ इस तरह विविध प्रकार की कथा कह रहे थे, पहाड़ की गुफा में पड़े हुए सम्पाती ने सुनी। उसने बाहर हो कर बहुत से बन्दरों को देखा कहने लगा "जगदीश्वर ने मुझे भोजन दिया ॥१॥ आजु सबन्हि कहँ भच्छन करऊँ । दिन बहु चल अहार बिनु मरऊँ । कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा । आजु दीन्ह बिधि एकहि बारा ॥२॥ आज सब को भक्षण काँगा, बहुत दिन बीत गया बिना भोजन के मरता हूँ कभी भर पेट आहार नहीं मिला, आज विधाता ने एक ही बार दे दिया ॥२॥ गुटका में दिन बहु चलेउ' और 'कबहुँ न मिलै' पाठ है। उसमें छन्दामा दोष है। डरपे गीध बचन सुनि काना । अब भा मरन सत्य हम जाना ॥ कपि सब उठे गीध कह देखी । जामवन्त मन सोच बिसेखी ॥३॥ गीध के पचन कान से सुन कर बन्दर डर गये, वे कहने लगे कि अब हम जान गये सचमुच भरण हुआ। गिद्ध को देख कर सब बानर उठे, जाम्बान के मन में बड़ा सोच हुश्रा ॥३॥ वानरों के मन में भय स्थायीभाव है । गीध दर्शन और उसका समीप आना उद्दी- पन विभाव है, कॉपना अनुभाव और शङ्का, चिन्ता, मोह आवेग आदि बारा भयानक रस कह अङ्गद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं ॥ राम-काज-कारन तनु त्यागी । हरिपुर गयउ परम-बड़भागी ॥४॥ अशद ने मन में विचार कर कहा कि जटायु के समान कोई धन्य नहीं है। उसने राम- चन्द्रजी के कार्य में शरीर त्याग कर दिया और बहुत बड़ा भाग्यवान था जो भगवान के लोक (वैकुण्ठ) को गयो ॥४॥