पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८४५

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७७६ रामचरित मानस । बन्दरों के प्रति अगदजी का कहना सम्पाती को विशेष सूचना देने के अर्थ है, जिससे वह सुन कर समझे और अपना अनिष्ट विचार त्याग दे 'गूढोक्ति अलंकार है। सुनि खग हरष सेोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी। तिन्हहिँ अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥५॥ अङ्गद की वाणी को सुन कर सम्पाती हर्ष और शोंक युक्त होकर समीप आया जिसले पानर डरे । उसने जा कर बन्दरों को निभय कर के पूछा, अङ्गद ने सारी कथा (जिस तरह जटायु रावण के हाथा मारा गया था ) कह सुनाई ॥५॥ हर्ष इस बात का खुला कि परोपकार और राम कार्य में शरीर छोड़ा शोक-बन्धु की मृत्यु सुन कर, हर्ष और शोक साथ ही होना प्रथम समुच्चय अलंकार है । पूछने परजटायु का हाल कहने में वानरों का गूढ़ अभिप्राय उसकी कृपा सम्पादन करने का गढ़ोत्तर अलंकार है। सुनि सम्पाति बन्धु कै करनी । रघुपति महिमा बहु बिधि बरनी ॥६॥ सम्पाती ने भाई को करनी सुन कर बहुत तरह रघुनाथजी की महिमा का वर्णन किया ॥६॥ दो-मोहि लेइ जाहु सिन्धु तट, देउँ तिलाञ्जलि ताहि । बचन सहाय करबि मैं , पइहहु खोजहु जाहि ॥२७॥ मुझे समुद्र के किनारे के चलते जाओ जिसमें मैं उसे तिलाञ्जलि देदूं। मैं तुम लेगा को वचन से सहायता करूंगा, जिनकी खोज करते हो; उन्हें पाओगे (घबराओ नहीं ) ॥२७॥ चौ०-अनुज क्रियाकरि सागर तीरा। कह निज कथा सुनहु कपि बीरा ॥ हम दोउ बन्धु प्रथम तरुनाई । गगन गये रबि निकट उड़ाई ॥१॥ समुद्र के किनारे छोटे भाई की क्रिया (श्राद्ध आदि प्रेत-कर्म ) कर वह अपनी कथा कहने लगा हे वानर वीरो! सुनिए । हम दोनों भाई पहले जब जवान थे; तब आकाश में उड़ कर सूर्य के पास गये ॥१॥ तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मैं अभिमानी रबि नियरावा ॥ जरे पल अति तेज अपारा । पुरेउँ भूमि करि घोर चिकारा ॥२॥ यह तेज नहीं सह सका लौट आया और मैं अभिमानी सूर्य के निकट जा पहुंचा। अत्यन्त अपार आँच से पक जल गये, मैं भीषण चीत्कार कर के धरती पर गिर पड़ा ॥२॥ मुनि एक नाम चन्द्रमा ओही । लागी दया देखि करि माही। बहु प्रकार तेहि ज्ञान सुनावा । देह-जनित-अभिमान छुड़ावा ॥३॥ एक चन्द्रमा नामक मुनि थे, मुझे देख कर उन्हें दया लगी। उन्होंने बहुत तरह मुझे शानेोपदेश सुनाया और शरीर से उत्पन्न घमण्ड को दूर कर दिया ॥३॥ चन्द्रमा अनि के पुत्र अनसूया के गर्भ से उत्पन्न हैं। दन्तात्रेय पार दुर्वासा इनके सगे