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रामचरित मानस

बड़ा प्रश्चिय्य हुश्रीं । अपनी अपनी बल सर्व ने कहा, परंतु पार जाने में संदेह ही रक्खा

अर्थात् लौ योजन लाँघनां किसी ने नहीं कहा ॥ ३॥ जरठ अयउँ, अब कहई रिछेसा । नहि तनु रहा प्रथम-बल-लेसों जबहि त्रिविक्रम भयउ खरारी । तब में तरुन रहेउँ बल भारी ॥४॥ जाम्बवान् ने कहा- अब मैं बुद्दा हो गया, शरीरमे पहिले का चल थेड़ा भी नहीं रह गया है। जैव विष्णु भगवान् वामन पं थे, तेव बड़ा बली और युवा था nan दो०-बलि बाँधत प्रा बाढ़ेउ, सो तनु बरनि न जाइ । उभय घरी महँ दीन्हीं, सांत प्रदच्छिन धाइ ॥२६॥ बलि राजा को बाँधने के लिये भगवान बढ़े,वई शरीर वर्णन नहीं किया जा सकता। उस समय दो घड़ी में दौड़ कर मैंने सात प्रदक्षिणा दी थी ॥२६॥ एक बार बलि ने इन्द्र की पदवी पाने के लिये सौ यज्ञ का संकल्प किया। जब ३ यह हों चुका, तब इन्द्र को बड़ी घबराहट हुई । देवताओं को साथ ले कर. वैकुण्ठ में गये और विष्णु भगवान से पुकार मचाई, भगवान् ने कहा- पलि मेरा परमभक्त है, उसके अनुष्ठान में विन डालना बड़ा कठिन है तो भी मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कहंगा । भगवान् वामन रूपधारी बाह्मण होकर यज्ञशाला में गये और तीन परग पृथ्वी माँगी, बलि ने दे दी। तब विराट रूप से दो ही परग में सारा ब्रह्माण्ड नपि लिया. तीसरे परंग के लिए वलि ने अपनी पीठ नवा दी। उसे लमय भगवान ने जो बड़ा शरीर लिया था, उसी का वर्णने जाम्बवान ने किया है। चौ अङ्गद कहइ जाउँ मैं पारा । जिय संसय कछु फिरती बारा ॥ जामवन्त कह तुम्हें सब लायक । किमि पठइय संबहीं कर नायक ॥१॥ , श्रद ने कहा- मैं पार जाऊँगा,पर लौटती बार के लिए मन में कुछ सन्देह है। जाम्बवान कहा- श्राप सब योग्य हैं और सभी के प्रधान हैं। फिर आप को मैं कैसे भे सकता ? (यह उचित नहीं कि नौकर चाकर बैठ कर मौज उड़ाव और राजकुमार धावन काकाम करें) अदजी ने पहिले कहा कि मैं समुद्र के उस पार चला जाऊँगा। फिर यह कह करें कि लौटने के लिये मन में कुछ सन्देह है, अपनी ही प्रथम कही.हुई बात का निषेध करना 'उक्ती अलंकार, है। श्रद के सन्देह पर लोग कई तरह के तर्क करते हैं। कुछ लोगों को कहना है-अङ्गद कहते हैं कि मैं लङ्का में अक्षयकुमार के साथ पढ़ता था। एक दिन मैंने उसे खूब पीटा, उसने जाकर गुरुजी से निवेदन किया । गुरु ने मुझे शाप दिया कि अक्षयकुमार के . एक ही,चूंसे से तेरी मृत्यु होगी, तब मैं किष्किन्धा को चला आया। अब यदि मैं लका में जाऊँ और वह मुझे मार डाले तो फिर कर कौन लौटेगा यही सन्देह है। सम्भव है कि यही संशय रहा हो, इसी से हनूमानजी ने अक्षयकुमार का वध कर के अजद को आगे लंका में

जाने का रास्ता साफ कर दिया था। (२) किसीके विचार से अङ्गद का यह कहना है कि

जो शक्ति के सम्मुख जाता है, वह असमर्थ भी समर्थ होता है और शक्ति के विपरीत चलने- वाला शक्तिमान भी अशक्त हो जाता है । इसके प्रमाण में भास्त्यि रामायण के इस श्लोक को उपस्थित करते हैं "अशी शक्ति सम्पन्ना येच शक्ति पराड मुखाः समथा समास्युः .