पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८५०

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श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीमद् गोस्वामि तुलसीदास-कृत रामचरितमानस पञ्चम-सोपान सन्दरकाण्ड शार्दूलविक्रीडित-वत्त । शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं गीर्वाण शान्तिप्रदं। ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिश वेदान्तवेद्य विभुम् ॥ रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरेिं। बन्देहं करुणाकरं रघुवरं भूपाल चूड़ामणिम् ॥१॥ शान्त स्वरूप, सनातन, अगाध, निष्पाप, देवताओं को शाति देनेवाले, ब्रह्मा, शिव और शेष से सदा सेवनीय, वेदान्त से जानने योग्य, समर्थ, संसार के स्वामी, देवों के गुरु, स्वेच्छा से मनुष्य शरीर धारण किये हुए, करुणा के खानि (दयालु) रघुवंशियों में श्रेष्ठ, राजों के सिरमौर राम नाम धारी परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ ॥१॥ सभा की प्रत्ति में 'निर्वाणशान्तिप्रदम्' पाठ है। वहाँ मोक्ष द्वारा शान्ति के देनेवाले, अर्थ होगा। वसन्ततिलका-वृत्त । नान्यास्टहा रघुपतेहृदयेस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरालमा । भक्ति प्रयच्छ रघुपुङ्गवनिर्भरां मे कामादिदोषरहित कुरु मानसं च ॥२॥ हे रघुनाथजी | मेरे मन में दुसरी इच्छा नहीं है, यह सत्य कहता हूँ, आप सब के अन्त- यामी हैं । हे रथकुल में श्रेष्ठ-रामचन्द्रजी | मुझे अपनी पूर्ण भक्ति दीजिये और मेरे हदय को काम आदि दोषों से रहित कीजिये ॥२॥