पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८५१

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. रामचरित मानस.. ३ मालिनी-वत्त। अतुलितबलधाम स्वर्णशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् । सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिवदूतं बातजातं 'नमामि॥३॥ अप्रमेय बल के स्थान, सुमेरु पर्वत के समान शरीरवाले, राक्षस रूपी वन के जलाने वाले अग्नि, शानियों में आगे गिने जानेवाले, समस्त गुणों के भण्डार, वानरों के स्वामी, रघुनाथजी के श्रेष्ट दूत पवनकुमार को मैं प्रणाम करता हूँ ॥३॥ चौथ-जामवन्त के बचन सुहाये । सुनि हनुमन्त हृदय अति भाये ॥ तब लगि मोहि परिखहु तुम्ह माई। सहि दुख कन्दमूल फलखाई ॥१॥ (किष्किन्धाकाण्ड के अन्त में कहे हुए) जाम्मवान् के सुहावने वचन सुन कर हनूमानजी के मन में वे बहुत अच्छे लगे। उन्हों ने कहा-भाइयो श्राप लोग दुःख सह कर और कन्द, मूल, फल खा कर तय तक मेरी राह देखना ॥१॥ जब लगि आवउँ सातहि देखी। हाइ काज माहि हरष बिसेखी ।। अस कहि नाइ सबन्हि कहूँ माथा चलेड हरपि हिप धरि रघुनाथा ॥२॥ जब तक मैं सीताजी को देखकर आ जाऊँ मुझे बड़ी प्रसनता है (इस से विश्वास हो रहा है कि) कायं सिद्ध होगा। ऐसा कह कर सब को मस्तक नवा कर प्रसन्न हो हृदय रघुनाथजी का ध्यान धर कर चले ॥२॥ सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥ बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेट पवन-तनय बल ओरी ॥३॥ समुद्र के किनारे एक सुन्दर नाम का पर्वत था, स्नेल ही में कूद कर उसके ऊपर चढ़ गये। बार बार रघुनाथजी का स्मरण कर महावली पवनकुमार उछले ॥३॥ चाल्मीकीय रामायण में महेन्द्राचल पर से कूदना लिखा है किन्तु गोस्वमीजी सुन्दर नामक पर्वत से उछतना लिखते हैं। इस काण्ड की यही से कथा प्रारम्भ हुई है, इसी से इसका नाम सुन्दरकाण्ड हुआ। यदि महेन्द्राचल ही माना जाय तो सुन्दर शब्द उसका विशेषण होगा। जेहि गिरि चरन देइ हनुमन्ता । चलेउ सो गा पाताल तुरन्ता ॥ जिमि अमोघ रघुपति कर बना । तेही भाँति चला हनुमाना ॥४॥ जिस पर्वतं पर पाँव रख कर हनूमानजी चले, वह (अत्यन्त बोझ से दब कर) तुरन्त पाताल को चला गया अर्थात् नीचे जमीन में धंस गया। जिस प्रकार रघुनाथजी बाण अचूक (धनुष से छूट करे खाली न जानेवाले) हैं, उसी तरह हनुमानजी चते.॥ में