पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८५४

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. पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । यहाँ कुछ लोग शंका करते हैं कि आगे समुद्र पार जाने परं हनुमानजी ने, जिस पर्वत पर चढ़ कर लंका का निरीक्षण किया, वह क्यों नहीं पाताल को गया ? पर यह शङ्का निर्मल है, क्योंकि इसी सुन्दर पर्वत पर पहले जब कुतुहल से ईनूमानजी चढ़े गये, तब वह नहीं धंसा । जिस समय पूरी शक्ति से ऊपर को उछले हैं, असहनीय भोर पा कर यह पहाई नीचे को धंस गया। इसी तरह आगे के पर्वत पर खेल के साथ चढ़े थे इस से वह नहीं धंसी। जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । ते मैनाक होइ खम हॉरों ॥५॥ समुद्र में रघुनाथनों की दूत समझ कर मैनाक पवते से कहा कि तुम हनुमानजी की थकावट हरने वलि हो (वनों) in समुद्र के कर्थन में आशंय की श्लेष है। उसने सेंचिा कि मैं संगर के पुत्रों से उत्पन्न kऔर रामचन्द्रजी उन्हीं के वंशज हैं। हनूमान उनके दूत हैं । रामकाव्य के निमित बै लकापुरी की जा रहे हैं। इन्हें विश्राम देना मेरा कर्तव्य हैं । दूसरे जब इन्द्र ने पर्वतों के पर काटने की प्रतिज्ञा की; तथं मैगाके को बचाने में पवनदेवं सहायक हुए थे, उन्हों ने उसे उड़ा कर मेरे दर (समुद्र) में छिपा दिया। इस समय पवन के पुत्र प्रकाश मांग में जा रहे हैं, समुद्र ने मैनाक को उनके साथ प्रत्युपकार करने को परामर्श दिया, तय मैना पानी निकल कर हनूमान के पास आया और विश्राम करने की प्रार्थना की। दो हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम । राम-काज कीन्हे बिनु, मोहि कहाँ बिलाम ॥१॥ हनुमानजी ने उसको हाथ से कू कर फिर प्रणाम किया और कहा कि रामचन्द्रजी का कार्य किये बिना मुझे विश्राम कहाँ है ? ॥१॥ यह दोहा १२-११ मात्राओं के विश्राम से हैं। इसी से पहले और तीसरे चरण के उच्चा. रण में एक मात्रा की कमी मालूम होती है।। चौ-जात पवन सुते देवन्हें देखा । जनिई कहँ बल बुद्धि बिसेखा ॥ सुरसा नाम अहिन्ह के माता। पठइन्हि आई कही तेहि बाता॥१॥ देवताओं ने पवन कुमार को आते हुए देखा, (उनके मन में सन्देह हुँ किला में प्रसंश्यों बड़े बड़े मायावी क्षिसमटं निवास करते हैं, यहाँ प्रवेश कर सकुशल लौट आना आसान नहीं है इसलिए उन्हों ने हनुमानजी के ) बल और बुद्धि की विशेषता (महत्व) जानने के लिए संपों की माता मुरखों नाम्नी सपिणी को भेजा। उसने आकर यह बात कही। आजु सुरन्ह माहि दीन्ह अहारा । सुनत बचन कहें पवन-कुमारा ॥ राम-काज करि फिरि में आवउँ । सीता कै सुधि प्रभुहि सुनावउँ ॥२॥ श्रीज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है, वह पचन सुनकर पवनकुमार ने कहा मैं राम कार्य कर के लौट भाऊ और सीता का अपर प्रभुरीमचन्द्रजी को सुना हूँ ॥२॥ ।