? , ७४ रामचरित मानस ।' तब तब बदन पइठिहीं आई। सत्य कहउँ माहि जान दे माई। कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना । ग्रससि न माहि कहेउ हनुमाना ॥३॥ हे माता ! तब मैं पा कर तेरे मुख में प्रवेश करूँगा, सच कहता हूँ मुझे जाने दे ! जब किली उपाय से वह नहीं जाने देती, तव हनूमानजी ने कहा-फिर मुझे क्यों नहीं नस लेती ॥३॥ 'प्रससि न मोहि' शब्द श्लेषार्थी है, कवि इच्छित अर्थ के अतिरिक दूसरा अर्थ भी निकलता है । इनूमानजी ने कहा कि तू मुझे प्रल न सकेगी 'श्लेष अलंकार, है। कहने के सिवाय हनूमानजी ने और कोई यत्न तो किया नहीं, फिर कवने जतन देह नहिँ जाना' क्यों कहा गया। १ (१) रामकार्य के लिए जाता हूँ। (२) सीताजी के संकट की खबर स्वामी को सुना हूँ। (३) सन कहता हूँ लौट कर तेरे मुख में पढूंगा । (४) माई शन्द बड़ा ही करुणा वाचक है। इन वचनों ही में यल भरा है अर्थात् राम काज सुनकर यह बाधक न होगी। सुरसा स्त्री है, सीताजी की विपत्ति में सहायक होने की बात सुनकर दया करेगी। सच कहता हूँ लौट कर मुख में पैगा, इस सच्चाई पर रहम करेगी। अन्त में माता इस लिए कहा जिस में वह अवश्यही दयाद हो जाय । जोजन भरि तेहि बदन पसारा । कपि त्तनु कीन्ह दुगुन विस्तारा॥ सोरह जोजन मुख तेहि ठयऊ । तुरत पवन-सुत अत्तिप्त भयऊ ॥४॥ (हनूमानजी को प्रसने के लिए) उसने चार कोस का लम्बा मुँह फैलाया, तब हनुमान जी ने अपने शरीर का विस्तार दुना कर लिया। उसने सोलह योजन का मुख बनाया, तुरन्त ही पवनकुमार बत्तीस योजन के हो गये Man जस जस सुरसा बदन बढ़ावा । तासु दून कपि रूप देखावा ॥ सत जोजन तेहि आनन कीन्हा । अति लघु रूप पवन-सुत लीन्हा॥५॥ जैसे जैसे सुरसा मुँह बढ़ाती गई, उसका दुना हनूमानजी ने अपना रूप दिखाया । जब उसने चार सौ कोस का मुख किया, तब पवकुमार ने अपना रूप अत्यन्त छोटा कर लिया ॥५॥ बदन पइठि पुनि बाहेर आवा । माँगा बिदा ताहि सिर नावा ॥ मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा । बुधि-बल-मरम तार मैं पावा ॥६॥ उसके मुख में पैठ कर फिर बाहर आ गये और सुरसा को .प्रणाम करके बिदा माँगी कि (तू मुझे प्रसना चाहती थी, मैं तेरे मुख में जो कर बाहर निकल आया, अब तेरी प्रतिक्षा पूरी हो गई मुझे जाने दे )। तब मुरसा ने कहा-मुझे देवताओं ने जिस लिये भेजा, तदनुसार मैं ने तुम्हारे बल और बुद्धि का भेद पा लिया ॥६॥