पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८५६

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७.५ पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । दो-रामकाज सब करिहहु, तुम्ह बल-बुद्धि-निधान । आसिष देइ गई सो, हरषि चलेउ हनुमान ॥२॥ आप घल और बुद्धि के स्थान हैं, सब तरह से रामकार्य करेंगे। यह कह कर आशीर्वाद देकर वह चली गई और हनूमानजी प्रसन्न हो कर आगे चले ॥२॥ चौध-निसिचरि एक सिन्धु मह रहई। करि माया नम के खग गहई । जीव-जन्तु जे गगन उड़ाही । जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥१॥ समुद्र में एक राक्षसी रहती थी, वह माया करके आकाश के पक्षियों को पकड़ लेती थी। जो जीव-जन्तु आकाश में उड़ते थे उनकी परछाही पानी में देख कर ॥१॥ गहइ छाँह सक से न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगन-चर खाई ।। सोइ छल हनूमान कह कीन्हा । तासु कपट कपि तुरतहि चीन्हा ॥२॥ छाया को पकड़ लेती थी; फिर वे उड़ नहीं सकते थे, इसी तरह सदा आकाशचारियों को खाती थी । वही छल उसने हनूमानजी से किया, उसके कपट को पवनकुमार ने तुरन्त ही पहचान लिया ॥२॥ सिंहिका नाम की रातसी समुद्र में रहती थी । वाली के डर से सुग्रीव सारी धरती पर भागते फिरे थे, इससे उनको इस राक्षसी की माया विदित थी। उन्होंने इसका वृत्तान्त चलते समय हनूमानजी को समझा कर कह दिया था। इस से वे तुरन्त जान गये। ताहि मारि मारुत-सुप्त बीरा । बरिधि पार गयउ भतिधीरा तहाँ जाइ देखी बन सामा। गुज्जत चञ्चरीक मधु लोभा ॥३॥ धीखुद्धि वीर पवनकुमार. उस राक्षसी को मार कर समुद्र के पार गये। वहाँ जा कर वन की शोभा देखी, जहाँ मकरन्द (फूलों के रस ) में जुभाये हुए भौरे गूंज रहे हैं ॥३॥ नाना तरु फल फूल सुहाये । खग मृग बन्द देखि मन भाये ॥ सैल बिसाल देखि एक आगे। ता पर धाइ चढ़ेउ मय त्यागे ॥४॥ अनेक प्रकार के वृक्ष फल और फूलों से सुहावने हो रहे हैं, झुण्ड के झुण्ड पक्षी और मृगों को देख कर मन में प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देख उस पर निर्भयता से दौड़ कर चढ़ गये॥४॥ 'भय त्यागे' शब्द में शङ्का की जाती है कि क्या अब तक हनुमानजी को भय था? उत्तर-समुद्र में दो विन हुए, इसलिये पार होने तक और विघ्न न मिले इसका सन्देव था, पर वह पार आ जाने से दूर हो गया । (२) अब तक भय हनूमानजी का साहस देखने के लिये साथ था, किन्तु सिन्धु पार होने पर वह हार मान कर चला गया, इस निभयदु:। 88