पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८५७

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A ७८६ रामचरित मानस । उमा न कछु कपि के अधिकाई । प्रभु प्रताप जो कालहि खाई ॥ गिरि पर चढ़ि लङ्का तेहि देखी । कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेखी ॥५॥ शिवजी कहते हैं- हे उमा ! इसमें हनूमान की कुछ धड़ाई महीं है, यह प्रभु रामचन्द्रजी का प्रताप है जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढ़ कर उसने लकापुरी देखी, अत्यन्त दुर्गम (जहाँ जाना सहज न हो ) होने की विशेषता कही नहीं जाती है ॥ ५ ॥ शिवजी ने हनुमानजी के पराक्रम का निषेध इसलिये किया कि उसका धर्म प्रभुः प्रताप में स्थापित करना मञ्जूर है जो काल को भी भक्षण कर जाता है। यह 'पर्यस्तापद्धति अलंकार' है। अति उतङ्ग जलनिधि चहुँ पासा । कनक-काट कर परम प्रकासा ॥६॥ बहुत ऊँचा सुवर्ण का प्राचीर (शहरपनाह) अत्यन्त प्रकाशमान है, जिस के चारों भोर समुद्र है ॥६॥ हरिगीतिका-छन्द। कनक-काट बिचित्र मनि-कृत, सुन्दरायतना धना । चउहह हह सुबह बीथी, चारु पुर बहु विधि बना ॥ गज बाजि खच्चर निकर पदचर, रथ बरूथन्हि को गनै । बहु रूप निसिचर जूथ अतिबल, सेन बरनत नहिँ बनै ॥१॥ सोने का बना राजमन्दिर मणियों से जड़ा हुआ अधिक विलक्षण सुन्दरता का स्थान है। चौक, बाज़ार, सड़क और गलियों से नगर बहुत तरह मनोहर बना है। हाथी, घोड़े, नजर, पैदलों के समूह और रथों के झुण्ड को कौन गिन सकता है ? अनेक रूपधारी महाबली राक्षसों के समुदाय की सेना वर्णन नहीं करते बनती है ॥१॥ ऊपर की चौपाई में कोट' शब्द का शहरपनाह अर्थ किया गया है। छन्द में राजप्रासाद का अर्थ देख कर एक हितैषी सज्जन ने सम्मति प्रदान की कि यहाँ भी शहरपनाह का ही अर्थ होना चाहिये । कोट शब्द के-गढ़, शहरपनाह, राजमन्दिर और यूथ पर्यायी शब्द हैं। जव चौक बाज़ार श्रादि का वर्णन है, तब यहाँ प्राचीर से प्रयोजन नहीं है। शहरपनाह पर मणि का जड़ा जाना अयुक्त है, इलसे लक्षणा राजमन्दिर ही को व्यजित करती है। बन बाग उपबन बाटिका सर, कूप बापी साहहीं। नर-नाग-सुर-गन्धर्व कन्या, रूप मुनि मन माहहीं । कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारेन्ह भिरहिँ बहु बिधि, एक एकन्ह तर्जहीं ॥२॥ धन, बगीचा, छोटे छोटे जङ्गल और फुलवारियों, तालाब, कुत्रा, बावलियों शोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवता और गन्धर्षों की कन्याएँ अपनी छवि से मुनियों के मन को मोहित कर