पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८५९

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ge रामचरित मानस। . जगह में रहे तो उन मसों से उनके प्राण ही न बचे। गौरैया के बरावर यन्दर का रूप होकर मुद्रिका साथ रखना कुछ भी आश्चर्य की बात नहीं है । "नरहरि" शब्द का कोई कोई नृसिंह भगवान का अर्थ करते हैं, वह इललिये कि हनूमानजी का विचार लङ्का निवासी राक्षसों के संहार करने का है, पतवर्थ नृसिंह का स्मरण किया। जानेहि नहीं मरम सठ मारा । मोर अहार , जहाँलगि चारा॥ मुठिका एक महा-कपि हनी । रुधिर बमत धरनी ढनमनी ॥२॥ अरे मूर्ख! तू मेरे भेद को नहीं जानता वि जहाँ तक (लङ्का में आनेवाले) चोर हैं वे मेरे थाहार हैं ? । यह सुनते ही महाबली हनूमानजी ने उसको एक घूसा मारा, जिससे वह रक्क उगलती हुई धरती पर लुढ़क पड़ी ॥२॥ एक विद्वान ने सम्मति प्रदान की कि 'जहाँलगि' के स्थान में 'लङ्क कर पाउ ठोक . है । अर्थ में उनकी प्राज्ञा का पालन कर दिया गया, किन्तु मूल पाठ हम सभा की प्रति और गुटका के आधार पर रखते हैं, उन दोनों में 'जहाँ लगि' पाठ है । मूल बदलने का हमें कोई अधिकार नहीं है। पुनि सम्भारि उठी सो लङ्को । जोरि पानि कर बिनय ससङ्को । जब रावनहिं ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरजि कहा माहि चीन्हा ॥३॥ फिर वह लकिनी सम्हल कर उठी और हाथ जोड़ कर डरती हुई विनती करने लगी। उसने कहा कि जब ब्रह्मा ने रावण को बरदान दिया था, तब चलती बेर विधाता ने मुझ से (रावण के विनाशकाल का) पहचान बतलाया ॥३॥ लकिनी के कोप रूप भाव को शान्ति हनुमानजी के रुष्ट भाव से होना 'समाहित अलंकार' है। बिकल होसि त कपि के मारे । तब जानेसु निसिचर सङ्घारे । तात भार अति पुन्य बहूता । देखेउ नयन राम कर दूता ॥४॥ उन्हों ने कहा- जब तू बन्दर के मारने से व्याकुल हो जाय, तम जान लेना कि राक्षसों के नाश का समय आ गया। हे तात ! मेरा बहुत बड़ा पुण्य है कि रामदूत को मैं ने आँख हनूमानजी के बिना पूछे ही. लकिनी सब बातें कह चली इसमें उसका गूढ़ भमि प्राय सच्ची बात कहकर रामदूत की कृपा सम्पादन करने का है। यह कल्पित प्रश्न का 'गूढो चर अलंकार है। दो-तात स्वर्ग अपबर्ग सुख, धरिय तुला एक अङ्ग। तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सतसङ्ग un है तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सुख को तराजू के एक पलड़े में रक्खे और दूसरे में पलक सर सत्ल का सुख रख कर तोले तो ये सब (दोन) मिल कर जो लवमान सत्सङ्ग का सुख है, उसके बराबर नहीं हो सकते ॥४॥ से देखा। ।